122 2122 2122 2122 2
उखाड़ेंगीं भी क्या मिलकर हज़ारों आँधियाँ अपना
पहाड़ों से भी ऊँचा सख़्सियत का है मकां अपना
मिटाकर क्या मिटायेगा कोई नाम-ओ-निशाँ अपना
मुक़ाम ऐसा बनाएंगे ज़मीं पर मेरी जाँ अपना
चला है गर चला है डूबकर मस्ती में कुछ ऐसे
नहीं रोके रुका है फिर किसी से कारवाँ अपना
पहुँचने में जहाँ तक घिस गये हैं पैर लोगों के
वहाँ हम छोड़ आये हैं बनाकर आशियाँ अपना
कभी मिलने अगर आओ तो सादा दिल चले आना
की हमने भेस रक्खा है अभी तक पासबाँ अपना
ज़रा सी बात आखि़र क्यों किसी को ना समझ आये
सभी बंदर हैं सरकस के मदारी है निहाँ अपना
हज़ारों ख़्वाहिशें काग़ज़ पे ही दम तोड़ देती हैं
है स्याही सुर्ख़ फिर अपनी क़लम है ख़ूँ-चकाँ अपना
कहाँ भटकोगे ढूँढोगे क़रार इस दिल का तुम "आज़ी"
कहाँ मिलता है ढूंढे से किसी को आसमां अपना...................
(मौलिक व अप्रकाशित)
आज़ी तमाम...............
Comment
'न जाने क्यों किसी को भी समझ इतनी सी बात आये
सभी बंदर हैं सरकस के मदारी है निहाँ अपना'
ये शैर ठीक हो गया, बाक़ी पर और मिहनत करें ।
सादर प्रणाम गुरु जी गौर फरमायियेगा
चले जाता है अक्सर डूबकर मस्ती में कुछ ऐसे
नहीं रोके रुका है फिर किसी से कारवाँ अपना
कभी मिलने अगर आओ तो सादा दिल चले आना
मज़ारों के चराग़ों सा फ़क़ीराना जहाँ अपना
न जाने क्यों किसी को भी समझ इतनी सी बात आये
सभी बंदर हैं सरकस के मदारी है निहाँ अपना
हज़ारों ख़्वाहिशें काग़ज़ पे ही दम तोड़ देती हैं
सि'याही सुर्ख़ फिर अपनी क़लम है ख़ूँ-चकाँ अपना
जी गुरु जी ठीक है मैं फिर से कोशिश करता हूँ
आप मार्गदर्शन करते रहें
धन्यवाद
'चला है काफ़िला गर डूबकर मस्ती में कुछ ऐसे
नहीं रोके रुका है फिर किसी से कारवाँ अपना'
ऊला में 'क़ाफ़िला' और सानी में 'कारवाँ' अभी ठीक नहीं हुआ,और मिहनत करें ।
'कभी मिलने अगर आओ तो सादा दिल चले आना
कि दिल को सादगी भाती है दिल है बागबां अपना'
ऊला में दिल सानी में दो बार दिल? और मिहनत करें ।
सादर प्रणाम गुरु
गौर फरमाईएगा गुरु जी
क्या इस तरह कर सकते हैं
चला है काफ़िला गर डूबकर मस्ती में कुछ ऐसे
नहीं रोके रुका है फिर किसी से कारवाँ अपना
कभी मिलने अगर आओ तो सादा दिल चले आना
कि दिल को सादगी भाती है दिल है बागबां अपना..................
सादर प्रणाम गुरु जी ठीक है
मैं फिर से एडिट करके कमियाँ दूर करने की कोशिश करता हूँ
मार्गदर्शन करने के लिये सहृदय धन्यवाद
जनाब आज़ी तमाम जी आदाब, ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।
सबसे पहली बात ये कि आपने अरकान ग़लत लिखे हैं,इस ग़ज़ल के अरकान हैं:-
1222 1222 1222 1222
'पहाड़ों से भी ऊँचा सख़्सियत का है मकां अपना'
इस मिसरे में 'सख़्सियत'
को "शख़्सियत" और 'मकां' को "मकाँ" लिखें ।
'चला है गर चला है डूबकर मस्ती में कुछ ऐसे'
इस मिसरे में 'चला है' शब्द दो बार खटकता है, इसे निकालने का प्रयास करें ।
'कभी मिलने अगर आओ तो सादा दिल चले आना
की हमने भेस रक्खा है अभी तक पासबाँ अपना'
इस शैर के सानी मिसरे का शिल्प कमज़ोर है,वाक्य विन्यास भी ठीक नहीं,और मिसरे के पहले शब्द 'की' को "कि" होना चाहिये, इसके कारण बह्र गड़बड़ हो रही है ।
'ज़रा सी बात आखि़र क्यों किसी को ना समझ आये'
इस मिसरे में 'ना समझ' शब्द उचित नहीं इसे बदलने का प्रयास करें ।
दम तोड़ देती हैं
'है स्याही सुर्ख़ फिर अपनी क़लम है ख़ूँ-चकाँ अपना'
इस मिसरे में 'सियाही' का वज़्न आपने 22 ग़लत लिया है, इसका सहीह वज़्न है 122, मिसरा बदलने का प्रयास करें ।
आदरणीय जनाब जान गोरखपुरी जी
हौसला अफ़ज़ाई के लिये सहृदय धन्यवाद
आदरणीय जनाब अमीर जी और जान जी माफ़ी चाहूँगा
पूरी ग़ज़ल एकदम पानी की तरह साफ़ साफ़ है
जितना शैर खोलते जायेंगे उतना ही भाव साफ़ साफ़ होता जायेगा
इस ग़ज़ल में शैर दर शैर इक इक कथ्य तथा तथ्य पानी की तरह स्पष्ट है
धन्यवाद.......
आ. भाई आजी तमाम जी ग़ज़ल का अच्छा प्रयास हुआ है हार्दिक बधाई
खूं-चकां को छोड़कर शेष सभी बातें जो आदरणीय अमीरुद्दीन सर ने कहीं है उस पर ध्यान दें। कथ्य को और स्पष्ट करने की जरूरत है।
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