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उखाड़ेंगीं भी क्या मिलकर हज़ारों आँधियाँ अपना
पहाड़ों से भी ऊँचा सख़्सियत का है मकां अपना
मिटाकर क्या मिटायेगा कोई नाम-ओ-निशाँ अपना
मुक़ाम ऐसा बनाएंगे ज़मीं पर मेरी जाँ अपना
चला है गर चला है डूबकर मस्ती में कुछ ऐसे
नहीं रोके रुका है फिर किसी से कारवाँ अपना
पहुँचने में जहाँ तक घिस गये हैं पैर लोगों के
वहाँ हम छोड़ आये हैं बनाकर आशियाँ अपना
कभी मिलने अगर आओ तो सादा दिल चले आना
की हमने भेस रक्खा है अभी तक पासबाँ अपना
ज़रा सी बात आखि़र क्यों किसी को ना समझ आये
सभी बंदर हैं सरकस के मदारी है निहाँ अपना
हज़ारों ख़्वाहिशें काग़ज़ पे ही दम तोड़ देती हैं
है स्याही सुर्ख़ फिर अपनी क़लम है ख़ूँ-चकाँ अपना
कहाँ भटकोगे ढूँढोगे क़रार इस दिल का तुम "आज़ी"
कहाँ मिलता है ढूंढे से किसी को आसमां अपना...................
(मौलिक व अप्रकाशित)
आज़ी तमाम...............
Comment
जनाब आज़ी 'तमाम' साहिब आदाब, मैं भी एक तालिब इल्म ही हूँ कोई उस्ताद नहीं।
आपके जवाब पर जिस बाद से सहमत हूँ वो ये कि 'खूँ-चकाँ' भी सहीह लफ्ज़ है, ग़ालिब साहिब के अशआर में बेशक इसका ज़िक्र है। इस जानकारी के लिए आपका धन्यवाद।
शेष पर गुणीजनों की टिप्पणी का मुझे भी इंतज़ार रहेगा। सादर।
माफ़ी चाहूंगा आदरणीय जनाब अमीर जी
सख्शियत का मकां बिल्कुल साफ़ साफ़ अर्थ है
कोई भी सख्शियत होती है उसका वो किसी सख्श की ही होती है यहाँ सख्श का ही जिस्म या मस्तिष्क वो मकान दिखाया गया है
खूं चकां भी बिल्कुल सही है इसके लिये ग़ालिब की कुछ लाईन पेश हैं
जिक्र उस परीवश का,और फिर बयां अपना
बन गया रकीब आखिर,था जो रजदां अपना
मंजर इक बुलंन्दी पर और बना सकते
अर्श से उधर होता काश कि मकां अपना
दर्दे दिल लिखूं कब तक,जाउं उनको दिखला दूं
उंगलिया फिगार अपनी,खामा खूं-चकां अपना
हम कहां के दाना थे किस हुन्नर में यत्का थे
बेसबब हुआ ‘गालिब’ दुश्मन आसमां अपना
भेस पासबान का मतलब यहाँ चौकीदार एक साधारण व्यक्ति से है और सादा दिल का मतलब यहाँ सादा दिल से ही है बात एकदम साफ़ साफ़ ही कही गई है
बंदर सभी सरकस से मतलब सभी कुछ जो भी इस पृथ्वी पर जीवित है और मदारी निहाँ से छुपा हुआ मदारी अर्थात ख़ुदा से तात्पर्य है बात पूरी ग़ज़ल में एकदम सीधे सीधे स्पष्ट की गई है
अगर फिर भी आपको लगता है गुरु जी जनाब अमीर जी तो क्षमा प्रार्थी हूँ हो सकता है मुझे आपकी टिप्पणी समझ न आई हो आप जरा विस्तार से बताएं शायद मैं कुछ सीख सकूँ
धन्यवाद
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उखाड़ेंगीं भी क्या मिलकर हज़ारों अंधियाँ अपना
पहाड़ों से भी ऊँचा सख़्सियत का है मकां अपना ... इस मिसरे का शब्द विन्यास ठीक नहीं है "शख़्सियत का मकां" (मकान)? इसे यूंँ कह सकते हैं -
पहाड़ों से भी ऊँचा है इरादों का जहाँ अपना
मिटाकर क्या मिटायेगा कोई नाम ओ निशां अपना
मुकाम ऐसा बनाएंगे ज़मी पर मेरी जां अपना. इस शे'र में निशां को निशाँ, ज़मी को ज़मीं जां को जाँ कर लें दीगर अशआर में भी देख लें।
कभी मिलने अगर आओ तो सादा दिल चले आना
की हमने भेस रक्खा है अभी तक पासबां अपना ... इस मिसरे का कथ्य स्पष्ट नहीं है।
जरा सी बात आखिर क्यों किसी को ना समझ आये
सभी बंदर हैं सरकस के मदारी है निहां अपना.........भाव स्पष्ट नहीं है, वाक्य विन्यास भी ठीक नहीं है।
हज़ारों ख्वाहिशें काग़ज़ पे ही दम तोड़ देती हैं
है स्याही सुर्ख फिर अपनी कलम है खूँ चकां अपना....सहीह शब्द ख़ूँ-चकान या ख़ूँ-चकानी है, इसका मुख़फ़्फ़ी नहीं है, क़लम शब्द स्त्रीलिंग है।
उर्दू के अल्फ़ाज़ में नुक़्तों का ध्यान रखना लाज़िमी है। सादर।
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