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इश्क मुहब्बत चाहत उल्फत
रश्क मुसीबत रंज कयामत।
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किसको क्या होना है हासिल
कोई न जाने अपनी किस्मत।
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क्यूँ मैं छोडूं यार तेरा दर
हक है मेरा करना इबादत।
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देख ली हमने सारी दुनिया
तुझसी न भायी कोई सूरत।
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जोर आजमा ले तू भी पूरा..
देखूँ इश्क़ मुझे या वहशत?
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'जान' ये दिन भी कट जायेंगे
देखी है जब उनकी नफरत।
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तेरे ही दम से सारे भरम हैं
वर्ना क्या दोज़ख़ क्या जन्नत।
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तुझसे ही थी जीस्त की जीनत
'जान'कहाँ अब पहले सी हालत।
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मौलिक व अप्रकाशित
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Comment
जनाब कृष मिश्रा 'जान' साहिब आदाब, ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है बधाई स्वीकार करें।
इश्क मुहब्बत चाहत उल्फत
रश्क मुसीबत रंज कयामत। ऊला मिसरे की तरह सानी को भी असरदार बनाने के लिए सानी में 'रश्क' की जगह 'दर्द' करना मुनासिब होगा।
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किसको क्या होना है हासिल
अपनी अपनी है ये क़िस्मत। इस शे'र के ऊला का शिल्प सानी के ऐतबार से 'किसको क्या हासिल है आया' करना बहतर होगा।
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जोर आजमा ले तू भी पूरा.. इस शे'र का ऊला मिसरा बह्र में नहीं है और शे'र का शिल्प भी ठीक नहीं है शे'र का भाव न बदले तो यूँ कह सकते हैं:
देखूँ इश्क़ मुझे या वहशत? "देखना तुम भी मैं भी देखूँ - इश्क़ है मुझको या के वहशत"
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दिन 'जान' ये भी कट जायेंगे... ये मिसरा बह्र में नहीं है, शे'र यूँ कह सकते हैं : दिन भी अब तो कटते नहीं हैं
देखी है जब उनकी नफरत। देखी जब से उनकी नफरत।
इस के इलावा उर्दु के अल्फ़ाज़ में नुक़्तों का सहीह इस्तेमाल करना सीखना होगा। सादर।
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