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तुम्हें कह चुका हूँ, मैं दोस्तो मेरे साथ आज बहार है !

है महर खुदा की वो आसरा सो खिवैया ही तो कहार है !

थी नहीं कभी रज़ा जिसकी होड़ - उड़ान में कभी ज़िन्दगी,

कहूँ कैसै वो रहा साथी मेरा जहाँ, सदा बारहा वो तो हार है !

न तुम्हें कोई भी है फिक्र गाँव- गली का वो न लिहाज़ है, 

न वो शर्म माँ कि न बाप की,  न तुम्हें जड़ों से ही प्यार है !

न वो मानता है किसी भी सोच को जानता नहीं मर्म को, 

वो समझता खुद को हैं शाह भी वो रतौंधी का तो शिकार है !

हैं न दिल मिले वो विवाह में, न वो सिलसिले रहे प्यार के, 

ये क़रीब रिश्तों का हाल है, तो बहुत बड़ी वो तो मार है !

मौलिक एव॔  अप्रकाशित 

प्रोफ  चेतन प्रकाश 'चेतन'

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