ग़ज़ल
1222/1222/1222/1222
वही जज़्बा वही लहजा लिए अख़बार आता है
मगर उस हादसे से क्यूँ परे अख़बार आता है ।
चुनावी दौर के वादे मुकम्मल हो न हो लेकिन
तुम्हे भी हो ख़बर घर पर मेरे अख़बार आता है ।
जो भर्तियाँ अटकी हैं उनका क्या हुआ होगा
अभी तो कोर्ट से लड़ते हुए अख़बार आता है ।
यकीनन सच को ही तो सामने आना जरूरी था
अगरचे झूठ के नीचे दबे अख़बार आता है ।
जो उनके पैरहन का रंग भी चर्चा में आ जाए
यहाँ मातम को भी लगने लगे अख़बार आता है ।
जवानी भेंट चढ़ जाए अभी कुछ इश्तिहारों में
बुढ़ापा और कट जाया करे अख़बार आता है ।
नए शहरों के बस जाने में कितने खेत लुट बैठे
हमारे गाँव में अब बिन डरे अख़बार आता है ।
सियासत से अदावत तक बग़ावत से अदालत तक
इसी का रोज़ अफसाना लिए अख़बार आता है ।
जहाँ ख़बरों को तेज़ी से चले आने की इक धुन हो
वहाँ क्या कम है यूँ हारे-थके अख़बार आता है ।
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