अपनों को खो देना का ग़म, रह रह कर हमें सताएगा
चाहे मरहम लगा लो जितना, ये घाव ना भरने पाएगा
कैसे हम भुला दे उनको, जो अपने संग हीं बैठे थे
रिश्ता नहीं था उनसे फिर भी, अपनो से हीं लगते थे
कैसे हम अब याद करे ना, उन हँसते-मुस्काते चेहरों को
एक पल में हीं जो तोड़ निकल गए, अपने सांस के पहरों को
हम थे, संग थे ख्वाब हमारे, बाकी सब दुनियादारी थी
लेकिन उस दुनिया में तो, उन की भी हिस्सेदारी थी
चहल पहल थी वहाँ हमेशा मदहोशी का आलम था
लेकिन घात लगाकर बैठा एक आतंकी अंजान भी था
सब थे खोए अपनी धुन में, नज़र सभी की अपनो पर थी
पर उससे अंजान रहे सब, जिसकी नज़र बस हमपर थी
अपनी जुबान में अपने ईश का, नाम बार बार वो लाते थे
अपनी भाषा में जाने क्या कहकर वो जोर ज़ोर चिल्लाते थे
जाने कितनों को मारा, कितनों को अनाथ किया
ना जाने कितने बच्चों का, जीवन उसने बर्बाद किया
मैं वहीं था घायल भी था, लेकिन बचकर निकाल आया
सबकुछ लूट गया वहीं मेरा, बस अपने प्राण बचा लाया
मैं ज़िंदा हूँ अब भी लेकिन, जिने जैसे कोई बात नहीं
ऐसे जिवन का क्या करना जब, अपना कोई साथ नहीं
मैं तो अब भी कहता हूँ कि मुझे किसी धर्म से बैर नहीं
लेकिन कैसे मान लूँ मैं कि आतंक का कोई धर्म नहीं
वो जाहिल है कहकर कबतक, खुद को हम बलहलाएंगे
कबतक आंखें मूंद कर हम-तुम गम अपना भुलाएंगे
वो आयेंगे हर बार जाने कितने मासुमों को मारेंगे
जब तक हम तुम सब मिलकर उनको सबक नहीं सिखायेंगे
चलो हम तुम कसम ये खा लें अब डर कर तो नहीं रहना है
हम भी उनको मारेंगे फिर मरना है तो मरना है
"मौलिक व अप्रकाशित"
अमन सिन्हा
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