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(ग़ज़ल) जो सच का पैरोकार नहीं

22     22     22     22

 

जो सच का पैरोकार नहीं 

वो काग़ज़ है अख़बार नहीं 

 

बेशक मैं गुल का हार नहीं

पर नफ़रत का भण्डार नहीं 

 

सत्ता की ख़ातिर नफ़रत की

खड़ी करो तुम दीवार नहीं 

 

थाती का सौदागर यारो 

हो सकता चौकीदार नहीं 

 

स्वर्ण लकीरें खींच रही जो

कलम है कोई तलवार नहीं  

 

रंग बदलने वाला मेरा 

गिरगिट जैसा किरदार नहीं 

 

भाग्य भरोसे जीना छोड़ो 

मुफ़लिस हो तुम लाचार नहीं

 

कहलाता ग़द्दार हमेशा 

भारत से जिसको प्यार नहीं 

 

क़दमों में तेरे गिर जाये 

ऐसी मेरी दस्तार नहीं 

 

आँधी मुझको मत आँख दिखा

चट्टान हूँ खर पतवार नहीं 

 

ग़ज़ल 'विमल' की आईना है 

बस शे'रों की भरमार नहीं

 (मौलिक एवं अप्रकाशित)

-अजय कुमार 'विमल'

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Comment

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Comment by Ajay Kumar on April 11, 2023 at 8:50pm
  • बहुत बहुत आभार आदरणीय @samar Kabeer साहब 
Comment by Samar kabeer on April 8, 2023 at 12:35pm

जनाब अजय कुमार 'विमल'जी आदाब, ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है, बधाई स्वीकार करें ।

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