दोहा पंचक. . . . प्रेम
प्रेम चेतना सूक्ष्म की, प्रेम प्रखर आलोक ।
प्रेम पृष्ठ है स्वप्न का, प्रेम न बदले मोक । ।
( मोक = केंचुल )
प्रेम स्वप्न परिधान है, प्रेम श्वांस की शान ।
प्रेम अमर इस भाव के , मिटते नहीं निशान ।।
प्रेम न माने जीत को, प्रेम न माने हार ।
जीवन देता प्रेम को, एक शब्द स्वीकार ।।
प्रेम सदा निष्काम का , मिले सुखद परिणाम ।
दूषित करती वासना, इसके रूप तमाम ।।
अटल सत्य संसार का, अविनाशी है प्रेम ।
भाव समर्पण माँगता , हरदम इसमें क्षेम ।।
सुशील सरना / 25-8-24
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