नहीं आऊंगी ( धारावाहिक कहानी)
लेखक - सतीश मापतपुरी
--------------- अंक - छः ---------------------
बम सदृश धमाका हुआ ......................मुझे कानों पर पर विश्वास नहीं हो रहा था पर यथार्थ हर हालत में यथार्थ ही होता है. मैं शालू का प्रस्ताव सुनकर अवाक था .
"शालू , जानती हो तुम क्या कह रही हो ?"
"अच्छी तरह. आपने ही तो कहा था कि बार-बार कहा जाने वाला झूठ भी सच हो जाता है . आज सब लोग मुझे आपकी प्रेमिका और महबूबा कह रहे हैं . मेरे नाम के साथ आपका नाम जोड़ रहें हैं . बोलते-बोलते वह हांफने लगी थी. थोड़ा रुक कर बोली- "सच प्रसून , अब मैनें फैसला कर लिया है कि तुम्हारी बनकर ही दम लूंगी ."शालू अंकल से प्रसून और आपसे तुम पर उतर आयी थी . मैं किंकर्तव्यविमूढ सा हा किये शालू का मुँह देख रहा था .
"मैं तुम्हारा फैसला जानना चाहती हूँ ."
" ऐ ...." मैंने अचकचा कर पूछा .
"मैं तुम्हारा फैसला जानना चाहती हूं."
"शालू, तुम इस समय भावावेश में हो . तुम जो चाहती हो वह मुश्किल .... ." उसने मेरी बात बीच ही में काटते हुए कहा-
"मैं तुम्हारा उपदेश नहीं, फैसला सुनना चाहती हूं ."
"मुझसे यह नहीं हो सकेगा शालू ."
"ठीक कह रहे हो प्रसून , तुमसे यह नहीं हो सकेगा . खैर ,तुमसे कोई गिला भी नहीं है . जा रही हूं , फिर वापस नहीं आउंगी . "
मैं पुकारता इसके पहले ही वह चली गयी . मैं भी उसके पीछे हो लिया. किन्तु बरामदे में ही रुक जाना पड़ा . उसकी मां की आवाज स्पष्ट सुनाई पड़ रही थी-
"कहा गयी थी ?"
"प्रसून से मिलने ." उसने निर्भीकता से कहा .
"अपने यार से मिलने गयी थी ?"
"हां."
"बेशर्म, आज मैं तुम्हारा पैर ही तोड़ कर रख दूँगी ."
"तुम क्या, मैं खुद ही अपना पैर तोड़ लूंगी ." मैं बोझिल मन से अपने कमरे में लौट आया . मुझे शालू पर गुस्सा नहीं, तरस आ रहा था . जो परिस्थिति उसके साथ थी उसमें उसका टूट जाना स्वाभाविक ही था .अविश्वास के वातावरण में भला कोई कब तक अपना संतुलन बनाये रख सकता है ? मुझे अंकल से प्रसून कहने के लिए लोगों ने बाध्य कर दिया था . उसकी पवित्र भावना पर ऐसा अपवित्र लांछन लगाया गया कि वह टूट कर बिखर गयी . मैं सोच रहा था कि इस समय मेरा कर्तव्य क्या होना चाहिए. सोचते सोचते न जाने मुझे कब नींद आ गयी और सुबह आँखें तब खुली जब मेरा नौकर रामरतन जोर-जोर से मेरा दरवाजा पीट रहा था...............................(क्रमशः)
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