नहीं आऊंगी ( धारावाहिक कहानी)
लेखक - सतीश मापतपुरी
--------------- अंक - पांच ---------------------
उसे देखते ही शालू तीर की तरह निकल गयी
सुबह संजय से मालूम हुआ कि रात में शालू को बेहरहमी से पीटा गया है . समाज की संकीर्णता देखकर मेरा मन क्षुब्ध हो उठा .किसी लड़की का किसी लड़के से मिलने का एक ही मतलब निकालने वाला यह समाज सजग एवं सचेत रहने के नाम पर भयंकर लापरवाही का परिचय देता रहता है . शालू पर , जो अभी यौवन के पड़ाव से कुछ दूर ही थी , उसकी मां ने सुरक्षा के ख्याल से पाबंदियां लगानी शुरू कर दी थी . शैशव और यौवन के बीच का समय उम्र का सबसे खतरनाक एवं संवेदनशील मोड़ है . छिपाव से लगाव पैदा होता है और यही कारण था कि मां शालू से मुझसे मिलने के बहाने जो बात छिपाना चाहती थी, शालू उसे जानने के लिए मेरे पास बार-बार आना चाहती थी.
शाम को मैंने वर्मा जी को बुलाकर रहने की अलग व्यवस्था करने के लिए कहा . साथ रहना अब किसी भी तरह संभव नहीं था क्योंकि हम-दोनों के बीच अविश्वास की भावना दिन-प्रतिदिन बलवती होती जा रही थी . जिस शाम मैनें वर्मा जी को बुलाया था उसी रात शालू पुनः मेरे पास आई और आते ही बोली... "आज मैं आपसे एक गंभीर विषय पर बात करने आई हूं . सच कहती हूं आपसे, मैं अब थक गयी हूं , मुझे सहारे की जरुरत है. मैं आपसे शादी करना चाहती हूं ." बम सदृश धमाका हुआ ............................................... (क्रमशः)
Comment
//किसी लड़की का किसी लड़के से मिलने का एक ही मतलब निकालने वाला यह समाज सजग एवं सचेत रहने के नाम पर भयंकर लापरवाही का परिचय देता रहता है .//
इस पंक्ति पर मेरी बधाइयाँ स्वीकार करें, भाई सतीशजी.
अभी तक कहानी ने जबर्दस्त पकड़ बनाये रखा है. और जिस उद्येश्य के साथ यह कहानी प्रारम्भ हुई थी वह अंक-पाँच तक बरकरार है. बधाई.
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