अगर रंग - बिरंगे ये नारे न होते.
तो फिर हम भी इतने बेचारे न होते .
बस बातों के मरहम से भर जाते शायद .
अगर ज़ख्म दिल के करारे न होते .
भला किसकी हिम्मत सितम ढा सके यूँ .
अगर हम जो आदत बिगाड़े न होते .
कहीं ना कहीं से तो शह मिल रहा है .
निर्भया के बसन यूँ उतारे न होते .
मिट जाती कब की ये रस्मोरिवाज़ें .
अगर पूर्वजों के सहारे न होते .
मौलिक और अप्रकाशित
सतीश मापतपुरी
Added by satish mapatpuri on September 20, 2015 at 10:00pm — 3 Comments
जिसने बताया हमको , लिखना हमारा नाम .
जिसने सिखाया हमको , कविता ,ग़ज़ल -कलाम .
समझाया जिसने हमको , दीने -धरम ,ईमान .
जिसने कहा कि एक है ,कह लो रहीम - राम .
भगवान से भी पहले ,करता नमन उन्हीं को .
मानों तो हैं खुदा वो , ना मानों तो हैं आम .…
Added by satish mapatpuri on September 5, 2012 at 3:46am — 18 Comments
ऐ मालिक ! बता दे तू , कि बहार बनाया क्यों ?
गर बहार बना था , तो उजाड़ बनाया क्यों ?
चमन में खिलती हैं कलियाँ , कली से नेह भौरों को .
पर भंवरे काँप उठे उस वक़्त , आखिर खार बनाया क्यों ?
जुदाई प्यार की मंजिल , तड़पना दिल को पड़ता है .
दिवाना कहती है दुनिया , तो फिर यह प्यार बनाया क्यों ?
मिलन की चाह होती है , मिलन होता मुकद्दर से .
तो मिलकर क्यों बिछड़ते हैं , आखिर दीदार बनाया क्यों ?
अगर मापतपुरी जालिम , तो उस पे कर करम मौला .
ख़ता…
Added by satish mapatpuri on August 31, 2012 at 2:15am — 4 Comments
[ एक ]
कठपुतली भी हँस रही, देख मनुज का हाल.
सबसे बड़ा मदारी वो , लिखे जो सबका भाल.
कौन नचाता है किसे, क्या इसका परमान.
सबकी डोर पे पकड़ जिसे, कहते कृपानिधान.
जिस उर में लालच बसे ,वहाँ कहाँ ईमान .
देय वस्तु पर नेह जिसे , सबसे बड़ा नादान.
जीवन गगरी माटी की , जिसका करम कोंहार .
सरग - नरक येही ठौर है , जिसका जस व्यवहार .
देने वाले ने दिया , एक सूर्य और सोम .
किन्तु मनुज ने बाँट ली , धरती नदियाँ व्योम .
कहत अभागा नियति का , नीयत नियत…
Added by satish mapatpuri on August 3, 2012 at 1:27am — 6 Comments
ज़िन्दों और परिंदों का बस एक ही पहचान है.
ना ही थकना, ना ही रुकना बस और बस उड़ान है.
एक जगह जो रुक गया तो रुक गया उसका सफ़र.
इसलिए ही अब तो मंजिल रोज़ एक मुकाम है.
कौन कहता है जहां में ज़िंदा रहना है कठिन.
आदमी में है ही क्या एक जिस्म और एक जान है.
मौसमे बारिश गिरा देता है कितने आशियाँ .
हिम्मते मरदा है जो कि हर तरफ मकान है.
ज़िन्दगी में जंग ना तो क्या मज़ा मापतपुरी.
ज़िन्दगी खुद में ही तो एक जंग का एलान है.
----- सतीश मापतपुरी
Added by satish mapatpuri on April 23, 2012 at 3:58am — 10 Comments
बंजर धरती दूषित हवा - जल, जंगल कटते जायेंगे.
ज़ख़्मी पर्यावरण आपसे , क्या हम बच्चे पायेंगे.
हरी - भरी धरती को आपने, बिन सोचे वीरान किया.
मतलब की खातिर ही आपने, वन - जंगल सुनसान किया.
नहीं बचेगा इन्सां भी, गर जीव - जंतु मिट जायेंगे.
ज़ख़्मी पर्यावरण आपसे , क्या हम बच्चे पायेंगे.
ऐसे पर्यावरण में कैसे, कोई राष्ट्र विकास करेगा.
अब भी गर बेखबर रहे तो, माफ नहीं इतिहास करेगा.
रहते समय नहीं चेते तो, कर मलते रह जायेंगे.
ज़ख़्मी पर्यावरण आपसे , क्या हम…
Added by satish mapatpuri on April 22, 2012 at 2:45am — 7 Comments
Added by satish mapatpuri on April 14, 2012 at 7:30pm — 9 Comments
जान ले लेगा वो तिल, लब पे जो बनाया है .
मेरी कलम ने तुम्हें , महबूबा बनाया है .
मुस्कुराती हो जब तो गालों पे, जानलेवा भंवर सा बनता है.
खोलती हो अदा से जब पलकें , झील में दो कँवल सा खिलता है.
साथ जिसको नहीं मिला तेरा, क्यों यहाँ ज़िन्दगी गंवाया है.
मेरी कलम ने तुम्हें , महबूबा बनाया है .
हुस्न की देवी तेरे ही दम से, खिलते हैं फूल दिल के गुलशन में.
देखकर तुमको ही ये हुरे ज़मीं , पलते हैं इश्क दिल की धड़कन में.
हर कोई देखता है तुमको ही, रब…
Added by satish mapatpuri on April 11, 2012 at 12:42am — 11 Comments
ज़ुल्फ बिखरा के छत पे ना आया करो , आसमाँ भी ज़मीं पर उतर आयेगा.
वक़्त बे वक़्त यूँ ना लो अंगड़ाइयां, देखने वाला बेमौत मर जायेगा.
होंठ तेरे गुलाबी ,शराबी नयन.
संगमरमर सा उजला है , तेरा बदन.
रूप यूँ ना सजाया - संवारा करो, टूट कर आईना भी बिखर जायेगा.
ज़ुल्फ बिखरा के छत पे ना आया करो , आसमाँ भी ज़मीं पर उतर आयेगा.
सारी दुनिया ही तुम पर, मेहरबान है.
देख तुमको…
ContinueAdded by satish mapatpuri on April 5, 2012 at 6:58pm — 13 Comments
Added by satish mapatpuri on March 9, 2012 at 12:40pm — 2 Comments
Added by satish mapatpuri on March 4, 2012 at 5:20pm — 7 Comments
Added by satish mapatpuri on February 24, 2012 at 2:05am — 7 Comments
Added by satish mapatpuri on February 15, 2012 at 1:08am — 5 Comments
दिल खोल गायें, तराना नये साल का.
सबको मुबारक हो, आना नये साल का.
खुशियाँ ही खुशियाँ, दिवाली ही दिवाली हो.
हर दिन सुहाना हो, रात मतवाली हो.
शांति- सुकून हो, नज़राना नये साल का.
सबको मुबारक हो, आना नये साल का.
प्यार बिना यारों, ये ज़िन्दगी बेकार है.
मिल्लत औ चाहत, अमन का आधार है.
सुख - समृद्धि हो, खज़ाना नये साल का.
सबको मुबारक हो, आना नये साल का.
मापतपुरी सबको हो,जलवा सिंगार का.
सबको सौगात मिले, उसके सच्चे प्यार का.
ऐसा हसीन हो,…
Added by satish mapatpuri on January 1, 2012 at 3:30am — 8 Comments
Added by satish mapatpuri on December 11, 2011 at 11:05pm — 1 Comment
त्यागपत्र (कहानी)
लेखक - सतीश मापतपुरी
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------------- अंक - 10 (अंतिम अंक) --------------
सुबह के तीन बजे रंजन की स्थिति में कुछ -कुछ सुधार होने लगा. ईलाज में लगे डॉक्टरों को थोड़ी सी राहत मिली. बेटे की हालत में सुधार देखकर प्रबल बाबू ने आँखें बंद कर उस ईश्वर के प्रति धन्यवाद ज्ञापित किया,…
ContinueAdded by satish mapatpuri on December 6, 2011 at 8:30pm — 2 Comments
Added by satish mapatpuri on December 5, 2011 at 5:00pm — 4 Comments
त्यागपत्र (कहानी)
लेखक - सतीश मापतपुरी
अंक 8 पढ़ने हेतु यहाँ क्लिक करे
------------- अंक - 9 --------------
रात्रि के 12 बज रहे थे. सिंह साहेब के सम्मान में एक बड़ी दवा कम्पनी ने राजधानी के एक शानदार होटल में भोज का आयोजन किया था. प्रबल बाबू उस दुनिया से बेखबर हो चुके थे, जहाँ गरीबी रेखा से भी नीचे लोग अपना जीवन बसर करते…
ContinueAdded by satish mapatpuri on November 7, 2011 at 8:00pm — 1 Comment
त्यागपत्र (कहानी)
लेखक - सतीश मापतपुरी
अंक 7 पढ़ने हेतु यहाँ क्लिक करे
-------------- अंक - 8 --------------
प्रबल प्रताप सिंह अब पूरी तरह बदल चुके थे. उनकी ममता को नैतिकता की वेदी पर अपने बच्चों का भविष्य कुर्बान करना गंवारा नहीं था. जीवन एक चढ़ान का नाम है, जहाँ से इंसान एक बार फिसलता है तो गिरता ही चला जाता है. उत्थान से…
ContinueAdded by satish mapatpuri on November 6, 2011 at 2:30pm — 1 Comment
त्यागपत्र (कहानी)
लेखक - सतीश मापतपुरी
अंक 6 पढ़ने हेतु यहाँ क्लिक करे
-------------- अंक - 7 --------------
प्रबल बाबू की खामोशी यह बता रही थी कि उनके भीतर विचारों का सैलाब उमड़ रहा है. कहीं नेक विचार उनके भीतर के जग रहे शैतान को पराजित न कर दे, यह सोचकर अध्यक्ष ने उनकी स्वार्थपरता को हवा देना जारी रखा. ........ 'आज समाज…
ContinueAdded by satish mapatpuri on November 5, 2011 at 11:30am — 2 Comments
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