त्यागपत्र (कहानी)
लेखक - सतीश मापतपुरी
अंक ९ पढ़ने हेतु यहाँ क्लिक करे
------------- अंक - 10 (अंतिम अंक) --------------
सुबह के तीन बजे रंजन की स्थिति में कुछ -कुछ सुधार होने लगा. ईलाज में लगे डॉक्टरों को थोड़ी सी राहत मिली. बेटे की हालत में सुधार देखकर प्रबल बाबू ने आँखें बंद कर उस ईश्वर के प्रति धन्यवाद ज्ञापित किया, जिसकी सत्ता का शायद कल तक उन्हें एहसास तक न था. कनीय डॉक्टरों को आवश्यक हिदायत एवं मंत्री जी को सांत्वना देकर बड़ा डॉक्टर नित्य क्रिया आदि के लिए घर चले गए. सब कुछ सामान्य हो चला था. चम्मन ने सिंह साहेब को घर जाकर आराम करने की सलाह दी, पर वह इसके लिए तैयार नहीं हुए, सिंह साहेब का कहना था कि रंजन को साथ लेकर ही घर जाऊँगा, मैंने उसकी माँ से उसे अपने साथ लाने का वादा किया है.
इंसान जैसा सोचता है, जैसा चाहता है जरुरी नहीं कि हमेशा वैसा ही हो.
प्रबल बाबू को लगने लगा था कि धीरे - धीरे सब कुछ सामान्य हो चला है. उन्हें क्या पता था कि नियति की सोच इंसानों की सोच से अलग भी हो सकती है. सुबह के सात बजे के करीब अचानक रंजन की हालत फिर से बिगड़ने लगी. बड़े डॉक्टर को तत्काल फोन पर कनीय डॉक्टर ने इसकी सूचना दी. बड़े डॉक्टर ने एक इंजेक्शन का नाम बताते हुए तुरंत इसे लगाने को कहा. वह इंजेक्शन अस्पताल में नहीं था. प्रबल बाबू ने आदमी दौड़ा कर बाहर से मंगवाया. इंजेक्शन लगते ही रंजन के शरीर में तीव्र कम्पन हुआ और देखते ही देखते शरीर शांत पड़ गया. ठीक उसी समय बड़े डॉक्टर अस्पताल पहुंचे. उन्होंने रंजन की नाड़ी और आँखें देखने के पश्चात उसे मृत घोषित कर दिया. प्रबल बाबू डॉक्टर को झिंझोड़ - झिंझोड़ कर सिर्फ एक ही बात कहते रहे - डॉक्टर .... मेरे बेटे को बचा लो . डॉक्टर ने इंजेक्शन को ध्यान से देखते हुए कहा - ' हम रंजन को अवश्य बचा लिए होते मंत्री जी.... ... पर अफसोस, यह इंजेक्शन नकली है.' बम सदृश धमाका हुआ
स्वास्थ्य मंत्री प्रबल प्रताप सिंह अपलक नकली इंजेक्शन को देखे जा रहे थे. प्रबल बाबू ने अपने रंजन के लिए क्या - क्या सपना देखा था, लेकिन नियति ने एक ऐसा झटका दियाथा कि सारे सपने चकनाचूर हो गए. मंत्री जी को दूर से आती एक क्षीण सी आवाज़ सुनाई पड़ रही थी - 'अपने लाल की मौत की क्या कीमत लगाते हो मंत्री जी ? .................. नकली दवाओं के कारण तो अब तक कई आँगन से लाशें उठ चुकी हैं ................. आज आपकी बारी है.
'सिंह साहेब कुछ पल शून्य में निहारते रहे फिर धीरे - धीरे चम्मन की बाहों में अचेत हो गए.
अध्यक्ष उमाकांत के सामने प्रबल बाबू ने अपना त्यागपत्र बढ़ा दिया. कहने - सुनने के लिए अब बचा ही क्या था. उमाकांत जी ने गौर से देखा ... त्यागपत्र स्याही से नहीं - खून से लिखा हुआ था.
समाप्त
Comment
आग जब घर मे लगती है तब उसकी ताप का अहसास होता है.
बेहतर कैनवास, उपयुक्त कथ्य, सटीक शिल्प और संयमित नाटकीयता के सम्मिश्रण ने इस कहानी को प्रवहमान तो रखा ही है, रोचक बनाये रखा है. आखिरी कुछ पंक्तियों में घटित दृश्य को चलचित्र की तरह प्रस्तुत करने का दम है. .. .
त्यागपत्र स्याही से नहीं - खून से लिखा हुआ था ... वाह ! वाह !!
संवेदनाओं से भरी हुई और आजकी विडंबनाओं को यथोचित उजागर करती इस सशक्त कहानी के लिये भाई सतीश जी को मेरी हार्दिक बधाइयाँ.
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |
You need to be a member of Open Books Online to add comments!
Join Open Books Online