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कटी पतंग (एक बलात्कार -पीड़िता का ग़म)

 
ना मैं हंसी हूँ - ना मैं ख़ुशी हूँ, ना मैं रंग -उमंग हूँ.
मेरा जीवन एक अफसाना , मैं एक कटी पतंग हूँ.
डोर से कटकर लटक गयी हूँ, मंजिल -पथ से भटक गयी हूँ.
कोई रंग चढ़े भी कैसे , मैं ऐसा बदरंग हूँ.
मेरा जीवन एक अफसाना , मैं एक कटी पतंग हूँ.
तूफानों में जकड़ गयी हूँ, साहिल से मैं बिछड़ गयी हूँ.
किस मुँह से बाबुल से कहूँ मैं, रंज़ोग़म के संग हूँ.
मेरा जीवन एक अफसाना , मैं एक कटी पतंग हूँ.
किस -किस का मैं दोष गिनाऊं, किस -किस को शूली पे चढ़ाऊं.
मर्दों की नामर्दी देख के, सच कहती मैं दंग हूँ .
मेरा जीवन एक अफसाना , मैं एक कटी पतंग हूँ.
                      ........... सतीश मापतपुरी

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Comment by राज लाली बटाला on March 8, 2012 at 9:39pm

मर्दों की नामर्दी देख के, सच कहती मैं दंग हूँ .!khoob

Comment by satish mapatpuri on March 8, 2012 at 7:48pm
मीनू जी और हरीश जी , सराहना के लिए दिल से आभार
Comment by Harish Bhatt on March 6, 2012 at 2:29am

आदरणीय सतीश जी सादर प्रणाम

दिल को झकझोरने वाली रचना के लिए बधाई.

Comment by minu jha on March 5, 2012 at 4:27pm

भाव विह्वल करती रचना सतीश जी,बधाई

Comment by satish mapatpuri on March 5, 2012 at 12:21am
सराहना के लिए आभार प्रदीप जी और शैलेन्द्र जी 
Comment by CA (Dr.)SHAILENDRA SINGH 'MRIDU' on March 4, 2012 at 7:02pm

आदरणीय सतीश सर बहुत ही भाव पूर्ण रचना  ,बधाई स्वीकार करें 

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on March 4, 2012 at 6:51pm

कोई रंग चढ़े भी कैसे , मैं ऐसा बदरंग हूँ.

KYA BAAT HAI. SUNDAR BHAV, SIR JI, BADHAI.

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