बंजर धरती दूषित हवा - जल, जंगल कटते जायेंगे.
ज़ख़्मी पर्यावरण आपसे , क्या हम बच्चे पायेंगे.
हरी - भरी धरती को आपने, बिन सोचे वीरान किया.
मतलब की खातिर ही आपने, वन - जंगल सुनसान किया.
नहीं बचेगा इन्सां भी, गर जीव - जंतु मिट जायेंगे.
ज़ख़्मी पर्यावरण आपसे , क्या हम बच्चे पायेंगे.
ऐसे पर्यावरण में कैसे, कोई राष्ट्र विकास करेगा.
अब भी गर बेखबर रहे तो, माफ नहीं इतिहास करेगा.
रहते समय नहीं चेते तो, कर मलते रह जायेंगे.
ज़ख़्मी पर्यावरण आपसे , क्या हम बच्चे पायेंगे.
अब भी खास नहीं बिगड़ा है , अब भी वक़्त सम्हलने का है.
कलियाँ कुम्हला गयी हैं फिर भी, अब भी मौसम खिलने का है
पर्यावरण की रक्षा करके, ही उन्नति कर पायेंगे.
ज़ख़्मी पर्यावरण आपसे , क्या हम बच्चे पायेंगे.
---- सतीश मापतपुरी
Comment
आदरणीय सतीश जी, सादर अभिवादन.
अब भी खास नहीं बिगड़ा है , अब भी वक़्त सम्हलने का है.
कलियाँ कुम्हला गयी हैं फिर भी, अब भी मौसम खिलने का है
आदरणीय मापतपुरी जी,
विशेष तौर पर आपकी पर्यावरणीय स्थिति पर आधारित इस रचना को नमन करना मेरे लिए अच्छा होगा| आपका हार्दिक आभार ऐसे संवेदनशील विषय पर अपने काव्यात्मक विचार रखने हेतु|
डॉ . प्राची जी, राणा जी, मृदु जी और मित्रवर सौरभ जी , सराहना के लिए आभार . सौरभ जी, आप तो समझ ही गएँ होंगे कि पृथ्वी - दिवस के लिए तैयार इस रचना को ही जैसे - तैसे करके चित्र प्रतियोगिता में डाल दिया था ,क्योंकि TOPIC लगभग एक ही था........ फर्क केवल छंद का ही
आदरणीय सतीशजी, इस रचना पर मेरा सादर अभिवादन स्वीकार करें. उद्येश्यपरक रचना हेतु ढेर सारी बधाइयाँ.
आदरणीय सतीश सर बहुत ही ज्वलंत समस्या आपने कविता के माध्यम से रखी है जो की यथार्थता और संवेदना के भाव मुखरित कर रही है, ऐसी उत्कृष्ट रचना पर ह्रदय से हार्दिक बधाई स्वीकार करें
आज के भौतिकतावादी समाज द्वारा खड़ी गई सबसे बड़ी समस्या को विषय बनाना ही इस कविता की सफलता है|हम समवेत स्वर में आपके साथ आवाज मिलाते हुए खड़े हैं|
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