त्यागपत्र (कहानी)
लेखक - सतीश मापतपुरी
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------------- अंक - 9 --------------
रात्रि के 12 बज रहे थे. सिंह साहेब के सम्मान में एक बड़ी दवा कम्पनी ने राजधानी के एक शानदार होटल में भोज का आयोजन किया था. प्रबल बाबू उस दुनिया से बेखबर हो चुके थे, जहाँ गरीबी रेखा से भी नीचे लोग अपना जीवन बसर करते हैं. जहाँ ऐसे बच्चे भी हैं जिनका बचपन किसी न किसी होटल या ढाबा में गिरवी पड़ा है... . जहाँ ऐसी जवानी भी है जिसे अपनी नग्नता छिपाने के लिए प्रयाप्त वस्त्र नहीं है .... जहाँ ऐसी इंसानियत भी है जिसे सर छिपाने के लिए छत नहीं है.
पार्टी अपने यौवन पर थी कि चम्मन ने बीच में खलल डाल दी. चम्मन प्रबल बाबू का आप्त सचिव था. चम्मन ने धीरे से फुसफुसा कर जो बात कही उसे सुनकर प्रबल बाबू जोर से चीखे - 'क्या ?' फिर वे एक पल भी वहाँ नहीं ठहरे. रंजन की बीमारी की खबर सुनते ही वे सकते में आ गए थे. प्रबल बाबू के घर पहुँचने से पहले डॉक्टर पहुँच चुके थे. रंजन का शरीर तेज बुखार में तप रहा था. डॉक्टरों के अथक प्रयास के बाद भी जब रंजन की स्थिति में सुधार नहीं हुआ तो उसे बड़े अस्पताल में भर्ती कराया गया. तेज बुखार के कारण रंजन बड़बड़ाने लगा था. वह सिंह साहेब की तरफ देखकर बार -बार कहता था -' पापा मुझे बचा लो. सेव मी ............ मैं जीना चाहता हूँ '
अपने लख्तेजिगर की करुण पुकार सिंह साहेब का कलेजा बेध रही थी. मंत्री बनने के बाद प्रबल बाबू पहली बार अपने को असहाय महसूस कर रहे थे. शासन के विधान पर तो उनका वश था, पर यह तो विधि का विधान था. ........
(क्रमश :)
Comment
शासन के विधान पर तो उनका वश था, पर यह तो विधि का विधान था.
क्या कमाल की पंक्ति है. ..! प्रबल बाबू की ऊहापोह कहानी के कथ्य के प्रति बहुत आशान्वित कर रही है. वाह !
हाँ, कहानी जिस विन्दु पर आ गयी है, देखियेगा कहीं वहीपन-वहीपन के भंवर में न फँसने लगे.
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