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आपका यूँ मुस्कुराना क्यों मुझे अच्छा लगा...

एक ग़ज़ल

आपका यूँ मुस्कुराना क्यों मुझे अच्छा लगा ?
एक होना, डूब जाना क्यों मुझे अच्छा लगा ?

 

जब अकेले हैं मिले, दीवानगी बढ़ती गई,
सिर हिलाना, भाग जाना क्यों मुझे अच्छा लगा ?

 

हाथ में मेरे, कलाई जब भी आई आपकी,
कसमसाना, फिर छुड़ाना क्यों मुझे अच्छा लगा ?

 

आँखों में काज़ल लगाकर माथे पे बिन्दी सजा,
बालों में कंघी लगाना क्यों मुझे अच्छा लगा ?

 

आँखों से इज़हार दिल की बात जब होने लगी,
आपका नज़रें चुराना क्यों मुझे अच्छा लगा ?

 

सीने से लगते ही जब शिक़वे-गिले मिटने लगे,
बड़बड़ाना, रूठ जाना क्यों मुझे अच्छा लगा ?

 

खुशियों में ‘अफ़सोस’ की बातें नहीं होतीं कभी,
हॅंसते-हॅंसते ग़म उठाना क्यों मुझे अच्छा लगा ?

 

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Comment

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on November 25, 2011 at 6:56pm

आदरणीय अफ़सोससाहब,   अव्वल तो, मुआफ़ी, कि कैसे अबतक आपकी इस उम्दा ग़ज़ल से महरूम रहा. किसशे’र को हासिल कहूँ ?! या, किस एक पर खुल कर दाद दूँ ..! शोख और अलमस्त अदायग़ी का मुज़ाहिरा करते इन सभी अश’आर पर मेरी दिली दाद कुबूल फ़रमायें.

आदाब है साहब.

 

Comment by वीनस केसरी on November 24, 2011 at 9:40pm

आपका यूँ मुस्कुराना क्यों मुझे अच्छा लगा ?
एक होना, डूब जाना क्यों मुझे अच्छा लगा ?

वाह वा,,,, क्या कहने

मतला खूब पसंद आया
एक होना, डूब जाना...
कमाल का सानी है .... बहुत गहरा 

लाजवाब गज़ल पढवाने के लिए धन्यवाद

Comment by Abhinav Arun on November 24, 2011 at 7:49pm
 बहुत खूब अफ़सोस जी शानदार ग़ज़ल के लिए हार्दिक मुबारकवाद , सभी शेर और विशेष कर ये शेर ख़ास पसंद आया -

खुशियों में ‘अफ़सोस’ की बातें नहीं होतीं कभी,
हॅंसते-हॅंसते ग़म उठाना क्यों मुझे अच्छा लगा ?


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on November 24, 2011 at 1:27pm

मतले से लेकर मकते तक बहुत ही खूबसूरत अश'आर कहे हैं मोहतरम अफ़सोस साहिब ! रिवायती ग़ज़ल का बेहतरीन नमूना पेश किया है आपने ! किसी एक शे'र को भी हासिल-ए-ग़ज़ल कहना मुश्किल हो रहा है, लेकिन इस शे'र में जो शोखी है वो सीधे दिल में उतर गई:

//हाथ में मेरे, कलाई जब भी आई आपकी,

कसमसाना, फिर छुड़ाना क्यों मुझे अच्छा लगा ? //

बहरहाल इस बेहतरीन ग़ज़ल के लिए मेरी दिली मुबारकबाद कबूल फरमाएं !

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