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नियम ये कैसा 
आज के युग का
जिधर भी देखो 
लोग अल्पजीवी बने पड़े हैं
न ख्याल में है उम्र बाकी 
न उनकी कोशिश हो उम्र लम्बी
अभी जो मैंने घुमाई नज़रें
मृत्यु शैया पे दोस्ती तड़प रही थी
मर के कुछ लोग हैं अब भी ज़िंदा
कुछ लोग जीते जी मर चुके हैं
मेरे यार देखना
आज जो हैं अपने 
कल तुमसे दूर होते जा रहे हैं
जो ख़्वाब देखे थे हमने मिलकर
वो ख़्वाब भी अब टूटे जा रहे हैं
जज्बात की उम्र छोटी थी पहले लेकिन
धैर्य अब तो बेमौत मर रहा है
पाना चाहे वो तुरंत सबकुछ
हताश हो जिन्दगी लुट रही है
वो फूल दिल में खिला सवेरे
शाम होते ही मुरझा गया है
जो चले थे कभी जहाँ बदलने
आज वो अपना घर बना रहें हैं
नियम ये कैसा 
आज के युग का
जिधर भी देखो 
लोग अल्पजीवी बने पड़े हैं

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Comment by Vikram Pratap on December 16, 2011 at 1:09pm

धन्यवाद अरुण कुमार जी 

Comment by Abhinav Arun on December 14, 2011 at 8:24am

विचारों के धरातल पर एक सशक्त रचना के लिए विक्रम जी हार्दिक बधाई !!

कृपया ध्यान दे...

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