तू वो ही है ना !
जो मेरे लात मारने पर
सहज ही मुस्कुराती थी
मेरी रग रग में भी तुरंत
गुदगुदी सी दौड़ जाती थी
ये बात तू जानती थी
मेरी हालत पहचानती थी .
और मै
बस रहता था इंतज़ार में.
तेरे पेट से बाहर निकालनें के
सोच विचार में.
तो वो ही है ना
मेरी माँ .
जिसनें मेरी किलकारी
सुननें की खातिर ,
कर दिया था अपना पेट
काटने को हाज़िर
और होश में आनें पर
पीड़ा को नहीं
लपक लिया था मुझे ...
कैसे भूल गयी तू
अपनें नौं महीनों को ,
बस मेरे एक बार
दूध हेतु छूने से
तेरे स्तनों को ...
तू वो ही है ना ...
जो सर्द रातों में
गर्म रखनें को मुझे ,
सो जाती थी खुद गीले में
और कांपती रहती थी पाले में
तब "हगीस" भी
नहीं आते थे ना माँ ?
आते भी तो
उसमें तो मैं ही
गीला रहता ना माँ ,
तो वो ही है ना !
जो पिताजी के मुझे पीटनें पर
खुद आ जाती थी बीच में .
खुद पीटनें का नाटक करती
छिपा लेटी थी आँचल के बीच में .
जोर से मारती,
प्यार से निहारती
फिर कैसे मुझे चोट ही नहीं लगती थी ?
ये आज समझ पाया हूँ...
तू वो ही है ना ..माँ ..
जो अब मेरे
ऑफिस से आनें पर ,
अकेली लेटी टकटकी लगाती
घर के मुहाने पर.
तरसती रहती
बात करनें को.
और मैं
सीधा अपनें बेड रूम में जा,
देखनें लगता हूँ
टीवी
संग
बच्चे बीवी .
" तू ठीक है बेटा ? "
कहती हुई झांकती है बाहर से ही
अक्सर !
" ठीक ही हूँ , मुझे क्या हुआ है ! "..
सुन कर वापिस हो जाती है
मायूस सी
अक्सर .
तो वो ही है ना माँ ? ?
हाँ ...
तू तो वो ही है ..
मेरी माँ .
मैं ही बदल गया हूँ ...
पर ऐसा क्यूँ हुआ ?
मैं ये ही सोचता हूँ
मेरी माँ ...
रचयिता : डा . अजय कुमार शर्मा ( EDITED )
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