गीत :
जब तुम बसंत बन थीं आयीं...
संजीव 'सलिल'
*
जब तुम बसंत बन थीं आयीं...
*
मेरा जीवन वन प्रांतर सा
उजड़ा उखड़ा नीरस सूना-सूना.
हो गया अचानक मधुर-सरस
आशा-उछाह लेकर दूना.
उमगा-उछला बन मृग-छौना
जब तुम बसंत बन थीं आयीं..
*
दिन में भी देखे थे सपने,
कुछ गैर बन गये थे अपने.
तब बेमानी से पाये थे
जग के मानक, अपने नपने.
बाँहों ने चाहा चाहों को
जब तुम बसंत बन थीं आयीं...
*
तुमसे पाया विश्वास नया.
अपनेपन का आभास नया.
नयनों में तुमने बसा लिया
जब बिम्ब मेरा सायास नया?
खुद को खोना भी हुआ सुखद
जब तुम बसंत बन थीं आयीं...
*
अधरों को प्यारे गीत लगे
भँवरा-कलिका मन मीत सगे.
बिन बादल इन्द्रधनुष देखा
निशि-वासर मधु से मिले पगे.
बरसों का साथ रहा पल सा
जब तुम बसंत बन थीं आयीं...
*
तुम बिन जीवन रजनी-'मावस
नयनों में मन में है पावस.
हर श्वास चाहती है रुकना
ज्यों दीप चाहता है बुझना.
करता हूँ याद सदा वे पल
जब तुम बसंत बन थीं आयीं...
*
सुन रुदन रूह दुःख पायेगी.
यह सोच अश्रु निज पीता हूँ.
एकाकी क्रौंच हुआ हूँ मैं
व्याकुल अतीत में जीता हूँ.
रीता कर पाये कर फिर से
जब तुम बसंत बन थीं आयीं...
*
तुम बिन जग-जीवन हुआ सजा
हर पल चाहूँ आ जाये कजा.
किससे पूछूँ क्यों मुझे तजा?
शायद मालिक की यही रजा.
मरने तक पल फिर-फिर जी लूँ
जब तुम बसंत बन थीं आयीं...
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Acharya Sanjiv verma 'Salil'
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