गीत और ग़ज़ल ऐसी विधाएं हैं जो प्रत्येक साहित्य प्रेमी को अपनी ओर आकर्षित करती हैं | चाहे वह मजदूर वर्ग हो या उच्च पदस्थ अधिकारी वर्ग, सभी के ह्रदय में एक कवि छुपा होता है | हर काल में गीतकार और ग़ज़लकार होने को एक आम आदमी से श्रेष्ठ और संवेदनशील होने का पर्याय मन गया है ऐसे में प्रत्येक साहित्य प्रेमी को प्रबल अभिलाषा होती है कि वह सृजनात्मकता को अपने जीवन में स्थान दे सके और समाज उसे गीतकार ग़ज़लकार के रूप में मान दे इस सकारात्मक सोच के साथ अधिकतर लोग खूब अध्ययन करने के पश्चात और शिल्पगत बारीकियों को समझ कर साहित्य की सेवा में तन मन से रत हैं और कविता ग़ज़ल के मूल तत्वों को आत्मसात करके रचनाशील हैं ऐसे रचनाकारों को शत् शत् नमन हैं
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मगर आज का मुद्दा वो लोग हैं जो शिल्प को सिरे से नकार देते हैं या सीखने अध्ययन करने में कोताही करते हैं और कुछ भी ऐसा रचते रहते हैं जो शिल्प के आधार पर जानकारों के द्वारा घटिया की श्रेणी में ही रखा जा सकता है ऐसे लोगों में भी दो वर्ग होते हैं एक तो वह, जो साधारण वर्ग से ताल्लुक रखता है और दूसरा उच्च पदस्थ अधिकारी वर्ग | आजकल खूब देखने में आ रहा है कि हर शहर में कुछ साहित्य प्रेमी पत्रकार और उच्च पदस्थ अधिकारी खुद को गीतकार ग़ज़लकार के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं और अपने संपर्क और पहचान के बल पर या पैसा दे कर अपनी ४- ६ गीत ग़ज़ल की किताब छपवा लेते हैं और कवि ग़ज़लकार बन बैठते हैं मगर यदि समीक्षा की जाए कि उनकी किताबों में क्या होता है तो सच हर पारखी को पता है, यही लोग आगे चल कर उन लोगों का हक छीनते हैं जो सच्चे अर्थों में रचनाकार हैं और सम्मान के सच्चे हकदार भी साधारण वर्ग से ताल्लुक रखने वाले घटिया रचनाकार को तो वरिष्ठजन नकार देते हैं और भाव नहीं देते और धीरे धीरे वह गुमनाम हो जाता है मगर उच्च पदस्थ वर्ग के साथ कुछ वरिष्ठजन दूसरा ही व्यवहार करते हैं , शर्म की बात है कि ऐसे उच्च पदस्थ अधिकारी महोदय की तथाकथित रचनाशीलता का समर्थन कुछ वरिष्ठ गीतकार और ग़ज़लकार खूब करते हैं, जहाँ ऐसे वरिष्ठ शाईर, नव आगंतुकों मेहनती और अच्छा लिखने वालों को अरूज के डंडे से पीटते हैं व उनके प्रयासों में सप्रयास मीनमेख निकालते हैं वहीं श्रेष्ठवर दूसरी ओर उच्च पदस्थ अधिकारीयों के लिए आजाद ग़ज़ल नामक विधा को पैदा करने को तत्पर दीखते हैं |
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यहाँ बड़ा प्रश्न उठता है कि अगर छंद अरूज के नियमों का अध्ययन और अभ्यास किन्ही महोदय के लिए दुष्कर कार्य है तो अपनी रचना को आजाद नज़्म क्यों नहीं कहते ? मगर इस प्रश्न को इन उच्च अधिकारीयों से पूछने का साहस कौन करे !बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे ?
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कुछ संतोष की बात है कि सप्रयास इसी तरह आजाद दोहा, आजाद चौपाई, आजाद सोरठा आदि नहीं लिखा जा रहा है या फिर क्या पता कि किसी महान हस्ती ने इन पर भी कलम चलाया हो ऐसे तथाकथित रचनाकारों से सबसे बड़ा नुक्सान उन रचनाकारों को हो रहा है जो सच्चे माइनों में साहित्य की सेवा कर रहे हैं, मंचों पर उच्च पदस्थों को सम्मानित किया जाता है और असली हकदार किनारे खड़ा ताली बजा कर रह जाता है यहाँ तक की कुछ संस्थाएं अपने लाभ के लिए ऐसे नकली ग़ज़लकारों गीतकारों से अध्यक्षता भी करवा देती है. अपवाद स्वरूप ऐसे वरिष्ठ पदाधिकारी भी मिलते हैं जो रचनाशीलता में तन मन से समर्पित हैं मगर दुर्भाग्य है कि हाजारों लोगों में ऐसे लोगों को हम उँगलियों में गिन सकते हैं सबसे बड़ा सवाल यह है कि ऐसे तथाकथित रचनाकारों से मंच और साहित्य को कैसे बचाया जाए ? यदि वरिष्ठ रचनाकार सामान्य वर्ग के घटिया साहित्य को नकार देते हैं तो उच्च पदस्थ घटिया रचनाकार को क्यों स्वीकार रहे हैं ? ऐसे वरिष्ठजन व्यग्तिगत लाभ के लिए साहित्य का नुक्सान करने के अतिरिक्त और क्या करते हैं ?
सोचिये ...
Comment
भाई वीनसजी, आप द्वारा उठाया गया विषय ’बिल्ली के गले में..’ कई-कई इंगितों को साथ लिये चलता है.
आपने सही कहा है कि अन्य क्षेत्रों की तरह साहित्य के क्षेत्र में भी मठाधीशी, जी हुज़ूरी, अपने ’प्यारे’ की ’मार्केटिंग’ आदि-आदि जैसे अवगुण बसे पड़े हैं. आज से नहीं, बल्कि एक समय से. कारण कि रचनाकार मुख्यतः आदमी ही होता है. और कम ही लोग सामान्य मानवोचित व्यवहार से आगे निकल पाते हैं. साहित्य के क्षेत्र में भी ’दो वर्गों’ का बन जाना इसी व्यवहार की प्रमुख कड़ी है.
दूसरे, बिना आवश्यक अध्ययन के, बिना मूलभूत जानकारी के, बिना गंभीर प्रयास के अधिकतर रचनाकार ’इंस्टंट’ प्रसिद्धि चाहते हैं. कई-कई कारणों से साहित्य की विधाओं से दूर होचुके विद्यार्थियों का एक भरा-पूरा आर्थिकतः सफल हो चुका वर्ग तैयार हो चुका है जो आज के पाठक वर्ग का बहुत बड़ा हिस्सा है. इस पाठक-वर्ग को संतुष्ट करना और उन्हें साध कर प्रशिक्षित करना ताकि पाठक को दिशा दी जा सके, आज के साहित्यकार की सबसे बड़ी चुनौती है. क्योंकि, बकौल आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी, ’मनुष्य ही साहित्य का लक्ष्य है’. और यही साहित्य का कोर है.
मगर सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि क्या आज का साहित्यकार इतना समृद्ध और तैयार है? उत्तर यदि हाँ होता शायद आपका यह विषय ही मौज़ूँ नहीं होता. आज तो स्थिति यह है कि मात्र एक दो सालों में डेढ़-दो सौ तथाकथित रचनाएँ कर डालने वाले रचनाकार हैं , जिनकी पाँच पंक्तियों की टिप्पणियों में दो वाक्य तक शुद्ध नहीं होते. और उनकी खूब मार्केटिंग होती है.
दूसरी ओर, गहन अध्ययन और आवश्यक तैयारी करने के बाद कोई रचनाकार अपनी कलम उठाता है तो उसकी रचना को न तो नवोदितों की श्रेणी में रखते बनता है, न ही तथाकथित साहित्यिक अग्रज या उनके पिछलग्गू उसे एकबारगी स्वीकार ही कर पाते हैं.
इन्हीं संदर्भों में मैं कहना चाहूंगा कि जब तक रचनाकार क्या लिखता हूँ, क्यों लिखता हूँ और कैसे लिखता हूँ के आत्म-मंथन से नहीं गुजरेगा, वह आत्ममुग्धता का शिकार रहेगा. यही नहीं अपने जैसे ही नीमरचनाकारों को तरजीह देने की कोशिश करेगा और माहौल बनाता पाया जायेगा. ताकि उसे कोई नककट्टा कहे भी तो सियार-समूह उसका पक्ष ले कर ’हुआँ-हुआँ’ कर सके.
भावुकता और संवेदनशीलता रचनाकार होने की गारंटी नहीं होतीं. बिना आवश्यक अभ्यास और अध्ययन के कोई भावुक या संवेदनशील व्यक्ति रचनाकार नहीं हो सकता, जैसे, बिना छेनी और सधे हाथों से गुजरे कोई पत्थर मूर्ति नहीं बन जाता.
भाई जी मैंने भी तो आपसे यही निवेदन किया है इस चर्चा को मंच विशेष और एक व्यक्ति पर केंद्रित न करें और व्यक्ति विशेष के बारे में कोई सुझाव देना है तो जा कर सुझाव और शिकायत फोरम पर लिखे और इस पोस्ट पर पोस्ट के विषय में कोई बात कहना है तो स्वागत है
आपने चर्चा को एक व्यक्ति पर केंद्रित कर दिया है, मैं नहीं चाहता कि मेरी पोस्ट के साथ ऐसा हो ...
आपसे सफाई नहीं मागी गयी बल्कि निवेदन किया गया है
मेरी पोस्ट इस मंच को लेकर नहीं लिखी गयी है यह आप पर भी स्पष्ट है तो ऐसी बात यहाँ क्यो कर रहे हैं
आपको वहाँ लिखने से कोई रोके तो आपको यहाँ लिखने के लिए खुली छूट है
मैं भी कुछ कहना चाहता हूँ मगर अब मैं इस विषय में यहाँ कोई कमेन्ट नहीं करूँगा.
भाई वीनसजी, एक जागरुक सदस्य के तौर पर आपने अपनी बातें कह दीं. और यह आपका थ्रेड है सो यह उचित भी है. अब इस तथ्य पर आगे एक भी टिप्पणी अनावश्यक होगी.
आदरणीय रविन्द्र नाथ शाही जी,
- मेरी जानकारी में आनंद प्रवीन एक अच्छे इंसान हैं मगर उनसे कुछ गलतियाँ हुई, आप भी इससे सहमत हैं कि यद्यपि शुरुआत में थोड़ी गलतफ़हमियाँ रहीं, जो अपरिचय की स्थिति में अक्सर संभावित होती हैं ।
- आनंद जी को नियम १(ख) के अंतर्गत "बैन" किया गया है मैं पुराने सन्दर्भों को यहाँ प्रस्तुत नहीं करना चाहता क्योकि आप खुद भी उनसे परिचित हैं
- मेरा पूरा विशवास है कि यदि आनंद जी अपने पूर्व की टिप्पणियों पर खेद व्यक्त करते हुए और भविष्य में ऐसी गलती न होने का आश्वासन दे कर प्रबंधन समिति से निवेदन करेंगे कि वो ओ बी ओ मंच से पुनः जुडना चाहते हैं तो संभवतः उनका स्वागत किया जा सकता है, किन्तु यह पूरी तरह से प्रबन्धन और प्रधान संपादक के अधिकार क्षेत्र की बातें हैं.
- किसी एक सदस्य के सन्दर्भ से मंच के प्रारूप को नहीं समझा जा सकता है,
- ओ बी ओ मंच मर्यादित रह कर बात करने वाले की हर बात सुनने और तर्कपूर्ण होने पर मानने को तैयार है मगर अपशब्दों के साथ कही बात को स्वीकार नहीं किया जाता
- ओ बी ओ के नियम स्पष्ट हैं और आनन्द जी के ओ बी ओ सदस्य बनाने से पहले से बने हैं और उनके जुडने के बाद इसमें कोई बदलाव भी नहीं किया गया है कि केवल उनको बैन करने के लए नियम में फेरबदल किया गया हो
- आपसे निवेदन है कि इस थ्रेड में पोस्ट से सम्बंधित चर्चा के लिए आपका स्वागत है | जो विषय यहाँ शुरू हो गया है इसे आगे बढ़ाने के इच्छुक हों तो सुझाव एवं शिकायत ग्रुप पर जा कर अपनी बात कह सकते हैं
- आशा करता हूँ कि आप मेरे कहे का मान रखेंगे
//बहुतों को बाहर का रास्ता दिखाया गया है', जैसी गर्वोक्ति आप जैसे विद्वान के मुंह से नहीं, बल्कि आटो रिक्शा वालों के मुँह से शोभा देगी//
आदरणीय रवींद्र जी, कृपया व्यक्ति विशेष की बात किसी भी नज़रिये से क्यों न हो, हम अवश्य और अविलम्ब बन्द करें. आप बुज़ुर्ग हैं. समझदार हैं और संयत हैं. आप भी जानते हैं कि अनुशासन का महत्त्व क्या है. विशेषकर, इस तरह के सामाजिक मंच के लिहाज से. इसके बावज़ूद, गणेश भाई की तथ्यपरक और सूचनात्मक उक्ति में आप गर्वोक्ति कैसे ढूँढ या देख पाये यह मुझे भी आश्चर्य होता है. वट वृक्ष का एक बीज, आदरणीय, राई के दाने से भी दसियों गुना छोटा होता है किन्तु हवा-खाद-पानी मुहैय्या कराया जाता रहा तो समय पाते ही भीमकाय वृक्ष बन जाता है. यह तथ्य सकारात्मक बातों के लिये भी एक इंगित है तो नकारात्मक बातों के लिये भी उतना ही समीचीन है. हम सभी से अपेक्षा है कि हम किसी भी बात को कहने के पहले अपने हृदय के तराजू पर तौल लें कि क्या इसका संतुलन ठीक है. ’सीखना’ नम्रता की मांग करती है तो वहीं, उचित पात्रता को भी देखती है. आप जिनका भी नाम लें, यदि उसकी पात्रता से आश्वस्त हैं तो अपने तक सीमित रखें. ओबीओ प्रबन्धन द्वारा लिये गये किसी निर्णय पर आगे से कोई चर्चा मान्य नहीं होगी. क्यों कि यह व्यक्तिवाची निर्णय नहीं है. अब इसके आगे कुछ नहीं कहूँगा.
भाई वीनस ने बहुत ही सम्यक और सामयिक प्रविष्टि डाल कर चर्चा प्रारम्भ की है. इसकी पवित्रता बनाये रखना हम सभी सदस्यों का दायित्त्व है. अन्यथा चर्चाएँ डाइवर्सन का ही कारण होंगी.
सादर
//परन्तु यदि उक्त पूर्वाग्रह को दिमाग से निकाल पाने में असमर्थता के कारण आनन्द प्रवीण जैसे नौजवानों को बाधित कर उनकी उभरती क्षमताओं को हम कुंठित करने का प्रयास करें, तो फ़िर आपकी यह बात कैसे सच मानी जा सकेगी, कि सीखने वालों को यहाँ बाहर का रास्ता नहीं दिखाया जाता ? //
आदरणीय रविन्द्र नाथ साही जी, सिखने वालों को बाहर का रास्ता नहीं दिखाया जाता, वरना यहाँ खूब बाहर का रास्ता दिखाया जाता है, मंच को गाली देकर, प्रबंधकों पर बिना सर पैर का इल्जाम लगा कर कोई मंच पर रहना चाहे, यह तो असंभव है, इन दो वर्षों में अब तक ४७ लोगो को बाहर का रास्ता दिखाया जा चूका है और २८ लोगो को ओ बी ओ रास नहीं आया सो वो स्वतः इस मंच को छोड़ जा चुके है, साफ़ सुथरा करने के क्रम मे न चाहते हुए भी कुछ कठोर निर्णय लेना पड़ता है, आखिर तालाब को गन्दा होने से भी बचाना होता है |
यहाँ किसी की प्रतिभा को कुंठित करने का प्रयास कभी नहीं हुआ है, आपका यह कहना ओ बी ओ पर एक झूठा इल्जाम है जिसे मैं पुरजोर खंडित करता हूँ |
चौथी स्त्री ने कहा कि मैं कुछ नही जानती ! निपट अज्ञानी हूँ ! और वो स्वीकार कर ली गई ! क्योकि उसे अपने अज्ञान का बोध था ! वो ज्ञान को ग्रहण कर सकती थी !
yahi satya hai. baht khoob. dhanyvad,
जी वीनस सर ! बिल्कुल ! ज्ञान उसी को दिया जा सकता है जिसे अपने अज्ञानी होने बोध हो ! एक प्रसंग याद आ रहा है -
एक संत के आश्रम में चार स्त्रियां प्रवेश पाने हेतु गई ! उनके आग्रह से प्रभावित हो संत ने कहा कि वो किसी एक को प्रवेश दे सकता है जो योग्य होगा ! उनकी परीक्षा ली गई ! संत ने प्रत्येक से कहा - मान लो समुद्र में किसी यात्रा के दौरान नाव डूब जाती है! तुम अकेली पचास पुरूषों के साथ एक निर्जन टापू पर लग जाती हो ! तुम उन पुरूषों से अपनी रक्षा कैसे करोगी ?
पहली स्त्री जो कुवारी थी वो डर कर बोली कि मैं तो किनारे लगूंगी ही नही डूब कर मर जाउंगी ! और वो प्रवेश के लिए अस्वीकार कर दी गई ! क्योकि उसका स्वाभाव समस्या से लड़ने का नही आत्मघाती था !
दूसरी स्त्री जो विवाहित थी ने कहा कि वो किसी एक बलवान पुरुष से विवाह कर लेगी जो बाकियों से उसकी रक्षा करेगा ! वो भी अस्वीकार कर दी गई ! इस समाज में एक स्त्री की रक्षा उसका पति नही बल्कि अन्य पुरुषों कि पत्नियाँ और उनका बंधन करता है ! क्योकि एक पुरुष बाकी उन्चासों को नही रोक सकता ! नई परिस्थितियों में उसका सिमित अनुभव कारगर न होगा !
तीसरी स्त्री जो एक वेश्या थी ने कहा कि सब तो ठीक है! निर्जन टापू है, पचास पुरुष हैं और में अकेली हूँ लेकिन समस्या क्या है ! सही बात है उसके लिए पचास पुरुष कोई समस्या नही ! वो भी अस्वीकार कर दी गई !
चौथी स्त्री ने कहा कि मैं कुछ नही जानती ! निपट अज्ञानी हूँ ! और वो स्वीकार कर ली गई ! क्योकि उसे अपने अज्ञान का बोध था ! वो ज्ञान को ग्रहण कर सकती थी !
अरुण भाई आपके बात से सहमत होते हुए एक बात जोडना चाहूँगा कि
यदि वो शिक्षार्थी है उनका आदर - सम्मान एक शिक्षार्थी की तरह हो मगर ऐसा भी तब ही जब वो सीखने के इच्छुक हों,,
चाहे वह किसी वर्ग विशेष का हो यदि किसी को ऐसा लगता है कि ईश्वर ने उसे सब कुछ सिखा कर भेजा है तब स्थिति दूसरी होगी :))
जहाँ तक मैं इस लेख को समझ पाया हूँ वीनस जी के कहने का ये अर्थ नही है कि उन तथाकथित रचनाकारों को किसी भी मंच से बहिस्कृत कर दिया जाए ! ये तो साहित्यिक अवधारणा के विरुद्ध होगा ! उनका आशय ये है कि यदि वो उचित पात्रता नही रखते तो उनका अनावश्यक महिमामंडन न किया जाए ! यदि वो शिक्षार्थी है उनका आदर - सम्मान एक शिक्षार्थी की तरह हो , न की गुरु की तरह ! क्षमा सहित !
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