For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

क्या स्वीकार कर पाएगी वह

क्या स्वीकार कर पाएगी वह ?


कोयला उसे बहुत नरम लगता है
और कहीं ठंडा ..
उसके शरीर में
जो कोयला ईश्वर ने भरा है
वह अजीब काला है
सख्त है
और कहीं गरम .!
अक्सर जब रात को आँखों में घड़ियाँ दब जाती हैं
और उनकी टिकटिक सन्नाटे में खो जाती है ..
तब अचानक कुछ जल उठता है ..
और सारे सपनों को कुदाल से तोड़
वह न जाने किस खंदक में जा पहुँचती है l


तभी पहाड़ों से लिपटकर
कई बादल चीखते हैं
जंगल काँप उठता है
और न जाने कहाँ से
भेड़िये गाँव की बकरियों को दबोचने आ पहुँचते हैं !
कुछ झील में तैरती झख बतखें
क्वक-क्वक कर दौड़ती हैं
और रात की स्याही पर
लाल छींटबिखर जाता है ...
झील की परत लाल हो जाती है l
ओह !
बादल की चीख खो गयी है
किन्हीं कंदराओं में l


वह अपने कोयले से बाहर आती है
जब लूसीफर (शुक्र तारा ) आसमान की कोर पर
भोर की लकीर खींचता है ...
किसी दैमौन (ग्रीक का द्वितीय श्रेणी देवता ) की तरह
उसके अन्दर की औरत को धिक्कारता
उसे सक्यूबस कह कर उलाहना देता ...
वह चुप हो बाहर आती है ...
गाँव की निगाहें गीध बनकर छेदती हैं ...
रोज़ के अनिष्ट से नहीं डरी
पर आज न जाने क्या मंगल घटा है ..
वह काँप गयी है भीतर तक ...
अलाव तप्त हो गया है ...
सूखे आंसू गलना सीख गए हैं ..
कोई पुरुष उसकी कालिख डाकिन पर रीझा है ...
क्या स्वीकार कर पाएगी वह ?

अपर्णा भटनागर 



विशेष - (सन्दर्भ हेतु )
कविता में विदेशी मिथकों को लिया गया है - डेमन के लिए जब हिंदी संस्कृत के शब्दों को लेकर बैठी तो लगा ये द्वितीय श्रेणी के देवताओं में नहीं आते और पिशाच आदि शब्द कविता में जुगुप्सा पैदा करते हैं .. इससे बचने के लिए और व्यापकता को समाविष्ट करने के लिए इन बिम्बों का प्रयोग किया l दैमौन (ग्रीक देवता ) शुक्र को बताया है जो सुबह आकाश में दीख पड़ रहा है ... क्योंकि दैमौन का प्रयोग उपयुक्त लगा इसलिए शुक्र को लूसीफर कहना पड़ा l इसी तरह काम की डायन कहना भारी लग रहा था तो सक्यूबस का प्रयोग किया ... ये शब्द आदिम अवस्था के प्रतिमान अधिक लगे और जिस नाज़ुक स्थिति में कविता आगे बढ़ रही है वहां इन शब्दों का प्रयोग प्रासंगिक लगा l कथा की ये नायिका उस समस्त तबके का हिस्सा है जो संसार में हर काल में , हर स्थान में विद्यमान रहा l चित्र भी विदेशी लगाया है l पर कविता पूरी तरह से देशी है l दुरूह न लगे इसलिए कोष्ठक में समानार्थी डाल दिए l कभी-कभी कविता में ध्वनियाँ भी महत्वपूर्ण होती हैं - इन शब्दों को आप हिंदी में डाल कर देखिये ... कविता अपनी ध्वनि खो बैठेगी और कुछ ऐसी कठोर हो जायेगी कि जिस depth को छूना चाहते हैं वह नहीं रहेगी l इसलिए हमारी भाषा से इतर शब्दों का चयन करने में हिचकिचाहट नहीं हुई ... कई विदेशी कविताओं में आप भारतीय मिथकों का प्रयोग पायेंगे...l

Views: 647

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by Aparna Bhatnagar on September 23, 2010 at 10:25pm
Thanks! Preetam ji ..
Comment by PREETAM TIWARY(PREET) on September 23, 2010 at 9:47pm
अपर्णा जी नमस्कार....

क्या लिखे समझ में नहीं आ रहा है...मैं साहित्य में कुछ भी नहीं जानता हूँ,...लेकिन पढ़ के मालुम पड़ता है बहुत ही शानदार लिखा है आपने....

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Rana Pratap Singh on September 20, 2010 at 11:14pm
बहुत सुन्दर

गाँव की निगाहें गीध बनकर छेदती हैं ...
रोज़ के अनिष्ट से नहीं डरी
पर आज न जाने क्या मंगल घटा है

सुन्दर पंक्तियाँ ...

कविता पूरी लय में है और विदेशी प्रतीक भी बिलकुल अटपटे नहीं लगे| शायद आपके सन्दर्भ को पढ़ने के बाद ऐसा लगा हो|
बधाई|
Comment by Aparna Bhatnagar on September 20, 2010 at 1:07pm
alka ji, aapka swagat hai.
Comment by alka tiwari on September 20, 2010 at 12:00pm
Aparna ji,aisi rachan ham tak pahunci iske liye aapko bahut bahut dhanyvaad.Kuch alag sikhane ka mauka mila.
Comment by Aparna Bhatnagar on September 19, 2010 at 5:15pm
नवीन जी , आपकी बात सही है .. हर प्रयोग को स्वीकार करना आसान भी नहीं ... इसलिए उनकी प्रासंगिता और उपादेयता समझाने के लिए सन्दर्भ भी दिया है. ऐसे प्रयोग विदेश में बहुत पहले ही शुरू हो गए थे. TS Eliot जी का हवाला देना चाहूंगी जिन्होनें अपने मिथकों के साथ हिन्दुस्तानी मिथकों के साथ प्रयोग किया . यद्यपि उनकी waste land विवादों के घेरे में रही किन्तु फिर भी उसे समय के साथ स्वीकृति मिली . आपको कविता अच्छी लगी , आभार !
Comment by Aparna Bhatnagar on September 19, 2010 at 10:32am
धन्यवाद गणेश जी .. आपके प्रोत्साहन के लिए .

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on September 19, 2010 at 10:04am
आदरणीया अपर्णा भटनागर जी,
प्रणाम ,
साहित्य जगत मे आपका नाम कोई नया नहीं है, यह कविता आप की दूरदर्शिता और साहित्य के प्रति समर्पण को भली भाति प्रदर्शित करती है, नए प्रतिक , मिथकों और बिम्बों का प्रयोग कविता को अनोखापन प्रदान कर रहा है , कुल मिलाकर एक बेहतरीन रचना, बधाई स्वीकार कीजिये |

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity

Aazi Tamaam commented on Aazi Tamaam's blog post ग़ज़ल: चार पहर कट जाएँ अगर जो मुश्किल के
"आदरणीय सुधार कर दिया गया है "
3 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on सुरेश कुमार 'कल्याण''s blog post गहरी दरारें (लघु कविता)
"आ. भाई सुरेश जी, सादर अभिवादन। बहुत भावपूर्ण कविता हुई है। हार्दिक बधाई।"
15 hours ago
Aazi Tamaam posted a blog post

ग़ज़ल: चार पहर कट जाएँ अगर जो मुश्किल के

२२ २२ २२ २२ २२ २चार पहर कट जाएँ अगर जो मुश्किल केहो जाएँ आसान रास्ते मंज़िल केहर पल अपना जिगर जलाना…See More
22 hours ago
सुरेश कुमार 'कल्याण' posted a blog post

गहरी दरारें (लघु कविता)

गहरी दरारें (लघु कविता)********************जैसे किसी तालाब कासारा जल सूखकरतलहटी में फट गई हों गहरी…See More
23 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' posted a blog post

शेष रखने कुटी हम तुले रात भर -लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

212/212/212/212 **** केश जब तब घटा के खुले रात भर ठोस पत्थर  हुए   बुलबुले  रात भर।। * देख…See More
yesterday
अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 170 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय चेतन भाईजी,  प्रस्तुति के लिए हार्दि बधाई । लेकिन मात्रा और शिल्पगत त्रुटियाँ प्रवाह…"
Sunday
अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 170 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय सौरभ भाईजी, समय देने के बाद भी एक त्रुटि हो ही गई।  सच तो ये है कि मेरी नजर इस पर पड़ी…"
Sunday
अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 170 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय लक्ष्मण भाईजी, इस प्रस्तुति को समय देने और प्रशंसा के लिए हार्दिक dhanyavaad| "
Sunday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 170 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय अखिलेश भाईजी, आपने इस प्रस्तुति को वास्तव में आवश्यक समय दिया है. हार्दिक बधाइयाँ स्वीकार…"
Sunday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 170 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय चेतन प्रकाश जी आपकी प्रस्तुति के लिए हार्दिक धन्यवाद. वैसे आपका गीत भावों से समृद्ध है.…"
Sunday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 170 in the group चित्र से काव्य तक
"आ. भाई अखिलेश जी, सादर अभिवादन। प्रदत्त चित्र को साकार करते सुंदर छंद हुए हैं। हार्दिक बधाई।"
Saturday
अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 170 in the group चित्र से काव्य तक
"सार छंद +++++++++ धोखेबाज पड़ोसी अपना, राम राम तो कहता।           …"
Saturday

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service