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जगाना मत !

कांपते हाथों से
वह साफ़ करता है कांच का गोला
कालिख पोंछकर लगाता है जतन से ..
लौ टिमटिमाने लगी है ..
इस पीली झुंसी रोशनी में
उसके माथे पर लकीरें उभरती हैं
बाहर जोते खेत की तरह
समय ने कितने हल चलाये हैं माथे पर ?
पानी की टिपटिप सुनाई देती है
बादलों की नालियाँ छप्पर से बह चली हैं
बारह मासा - धूप, पानी ,सर्दी को
अपनी झिर्रियों से आने देती
काला पड़ा पुआल तिकोना मुंह बना
हँसता है
और वह काँप-काँपकर
जिन्दगी को लालटेन में जलते देखता है ..
इस रोशनी में और भी कुछ शामिल है -
कुछ तुड़े-मुड़े ख़त
उसके जाने के बाद के
विस्मृति के बोझिल अक्षर
जिन्हें वह बंचवाता था डाकिये से
आजकल वह भी नहीं आता ..l
इस लौ के सामने खोल देता है
अक्षरों के बिम्ब ..
अनपढ़ मन के रटे पाठ ..
और सुधियाँ बरस पड़ती हैं
ज्यों बैल की पीठ पर दागे कोड़े l
गोले की जलन आँखों में भर गयी है
एक कलौंस -
अकेलेपन की ..
कंपकंपाती लौ ऊपर उठती है
भक होकर पछाड़ मारती है
धुंए से भरी
एक भोर -
अब उसकी आँख लग गयी है
जगाना मत !


अपर्णा भटनागर

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Comment by Aparna Bhatnagar on September 20, 2010 at 6:02am
नूतन आप senior ही हैं ..:)) आपका स्वागत ... आप केवल अपर्णा कहें , अच्छा लगेगा l
Comment by Dr Nutan on September 20, 2010 at 12:11am
bahut sundar likha hai Aparna ji.. swagat aapka.. yaha par mai senior hoon.. :))
Comment by Aparna Bhatnagar on September 18, 2010 at 10:47pm
संजीव सर , आपका लिखा बराबर शब्दकार पर पढ़ते रहते हैं और प्रेरणा भी मिली है. आपको रचना पसंद आई इससे ये संतुष्टि हुई कि लेखन का क.ख.ग. समझ आने लगा है. इन बिम्बों को लेकर अक्सर ये बहस भी हुई है कि हम अपनी कविता को दुरूह बना देते हैं किन्तु हमें ऐसा नहीं लगा ; हाँ, यदा कदा नए प्रयोग करने का प्रयास रहता है जिसे पाठक वर्ग स्वीकार नहीं कर पाता.
@रवि सर , शुक्रिया ! आपने कविता को पढ़ा ...
आज एक नयी कविता पोस्ट की है , उम्मीद है जटिलता के बाद भी कविता आपको पसंद आएगी l
Comment by Rash Bihari Ravi on September 18, 2010 at 8:24pm
sandar bahut badhia
Comment by sanjiv verma 'salil' on September 18, 2010 at 8:01pm
सशक्त यथार्थवादी विचारप्रधान रचना के बिम्ब और प्रतीक मन को छू गए. बधाई. अगली रचनाओं की प्रतीक्षा है.
Comment by Aparna Bhatnagar on September 18, 2010 at 7:58pm
आप सभी का अभिनन्दन ...और आभार!
Comment by alka tiwari on September 18, 2010 at 4:35pm
bahut hi barik chijon ko prakash me lati hai aapki kavita.
jahan na pahunce ravi ,wahan pahunce kavi.
bahoot khoob.
Comment by आशीष यादव on September 17, 2010 at 11:19pm
gareebo ki zindagi ko bahut hi shaandar dandh se prastut kiya hai aapne. sundar abhiwyakti.

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on September 17, 2010 at 10:23pm
यह रचना पढ़ने के बाद सोना मुश्किल है आप जगाने की बात करती है , बहुत ही खुबसूरत कृति, आप ने उस पल को छू लिया है जो गरीबो की जिन्दगी में अक्सर आते है, शानदार अभिव्यक्ति पर मैं वाह वाह ही कह सकता हूँ |
Comment by Admin on September 17, 2010 at 9:47pm
आदरणीया अपर्णा भटनागर जी,
प्रणाम,
सर्वप्रथम तो मैं ओपन बुक्स ऑनलाइन के मंच पर आपके पहले ब्लॉग का ह्रदय से स्वागत करता हूँ , आप की निगाह वहाँ पहुची है जहाँ साधारतः लोगो की नजरे नहीं पहुच पाती, बहुत ही खुबसूरत रचना, एक गरीब ग्रामीण की व्यथा को दिखाती यह रचना वाकई बहुत ही उम्द्दा और सार्थक है , इस बेहतरीन अभिव्यक्ति के लिये बधाई स्वीकार करे, उम्मीद है कि आगे भी आप की रचनायें और अन्य रचनाओं तथा चर्चा परिचर्चा पर आपके विचार देखने को मिलती रहेगी |

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