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ग़ज़ल:आ रहा जब तक

ग़ज़ल

आ रहा जब तक पतन से अर्थ है,
आचरण पर बहस करना व्यर्थ है.

आपके चेहरे पे गड्ढे शेष हैं,
आईने पर धूल की एक पर्त है.

चौक पर कबिरा मुनादी कर रहा,
आइये देखें क्या उसकी शर्त है.

सत्य आँखों की परिधि से दूर था ,
आज न्यायालय में जीता तर्क है.

मार्क्स गाँधी गोर्की को भूलकर ,
पीढी क्या जानेगी क्या संघर्ष है .

क़त्ल भाषा धर्म जाति के सबब,
सभ्यता का क्या यही उत्कर्ष है.

दोष अपना मेरे ऊपर मढ़ गया ,
दोस्त मेरा किस कदर कमज़र्फ है.

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Comment

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Comment by Abhinav Arun on October 10, 2010 at 7:58am
बागी जी कभी कभी जानते हुए भी इस काफियाबंदी से बगावत को जी चाहता है .पर आइन्दा ख़याल रखूंगा .बेबाक सलाहों का स्वागत है.ओ.बी.ओ. लिखने के साथ साथ लिखने का भी मंच बने .अच्छा होगा.

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on October 3, 2010 at 9:20pm
आ रहा जब तक पतन से अर्थ है,
आचरण पर बहस करना व्यर्थ है.
बहुत ही खुबसूरत मतला, बढ़िया ख्याल , पर कुछ काफियाबंदी समझ मे नहीं आई अभिनव भाई , गौर फरमाइयेगा ,

कृपया ध्यान दे...

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"आदरणीया प्रतिभा जी, मेरे प्रयास को मान देने के लिए हार्दिक आभार.. बहुत बहुत धन्यवाद.. सादर "
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"हार्दिक धन्यवाद, आदरणीय। "
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"आदरणीय आदरणीय चेतन प्रकाशजी मेरे प्रयास को मान देने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद। हार्दिक आभार। सादर।"
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"आदरणीय चेतन प्रकाश जी, प्रदत्त चित्र पर बढ़िया प्रस्तुति। इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाई। सादर।"
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"आदरणीया प्रतिभा जी, प्रदत्त चित्र को शाब्दिक करती मार्मिक प्रस्तुति। इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक…"
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"आदरणीय दयाराम जी, प्रदत्त चित्र को शाब्दिक करते बहुत बढ़िया छंद हुए हैं। इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक…"
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