ग़ज़ल -
फाइलातुन फाइलातुन फाइलातुन फाइलुन
२१२२ २१२२ २१२२ २१२
मौत का आना है तय उससे बचा कोई नहीं |
काम आ पायेगी अब शायद दुआ कोई नहीं |…
ContinueAdded by Abhinav Arun on June 23, 2014 at 7:30am — 22 Comments
Added by Abhinav Arun on June 22, 2014 at 7:15am — 25 Comments
Added by Abhinav Arun on June 10, 2014 at 5:53pm — 23 Comments
ग़ज़ल
फाइलातुन फ़इलातुन फ़इलातुन फैलुन
२१२२ ११२२ ११२२ २२
फूल की ख़ुशबू को हम यूं भी लुटा देते हैं |
करते हैं इश्क़ ज़माने को बता देते है |
एक चिंगारी है सीने में हवा देते हैं |
हम ग़ज़ल कहते हुए ख़ुद को सज़ा देते हैं |
जिसकी शाखों पे घरौंदों में मुहब्बत ज़िंदा ,
ऐसे पेड़ों को परिंदे भी दुआ देते हैं |
इश्क़ लहरों से अगर है तो क़िला गढ़ना क्या ,
रेत के घर को बनाते हैं मिटा देते हैं |…
Added by Abhinav Arun on March 22, 2014 at 7:30am — 20 Comments
ग़ज़ल –
मुफाईलुन मुफाईलुन मुफाईलुन मुफाईलुन
१२२२ १२२२ १२२२ १२२२
है गांवों में भी विद्यालय जहां अक्सर नहीं आते |
कभी बच्चे नहीं आते कभी टीचर नहीं आते |
…
ContinueAdded by Abhinav Arun on February 18, 2014 at 12:30pm — 14 Comments
दैनिक जागरण के राष्ट्रीय आयोजन ‘’ मेरा शहर मेरा गीत ‘’ के लिए गत वर्ष अप्रैल २०१३ में वाराणसी शहर से प्राप्त करीब पांच सौ प्रविष्टियों में से बॉलीवुड के प्रसिद्ध गीतकार प्रसून जोशी के नेतृत्व वाली ज्यूरी द्वारा चयनित गीत की दिनांक ०९ फरवरी २०१४ को वाराणसी के संपूर्णानंद स्टेडियम में समारोहपूर्वक भव्य लॉन्चिंग की गयी | इस गीत को दिल्ली एन. सी. आर.…
ContinueAdded by Abhinav Arun on February 15, 2014 at 7:16am — 13 Comments
Added by Abhinav Arun on February 15, 2014 at 7:08am — 19 Comments
Added by Abhinav Arun on January 6, 2014 at 7:47pm — 33 Comments
ग़ज़ल
फाइलातुन फइलातुन फैलुन \ फइलुन
२१२२ ११२२ २२ \ ११२
वर्ना अन्जान शहर लगता है
माँ जो होती है तो घर लगता है |
दौर कैसा है नई नस्लों का,
वक़्त से पहले ही पर लगता है |
है इधर रंग बदलती दुनिया,
मैं चला जाऊं उधर लगता है |
जाने किस दर्द से गुज़रा होगा ,
शेर जज़्बात से तर लगता है |
इस ऊंचाई से न देखो मुझको ,
दूर से सौ भी सिफर लगता है |
इन चटख फूलों में मकरंद नहीं ,
ये दवाओं का असर लगता है |…
Added by Abhinav Arun on January 2, 2014 at 4:30pm — 40 Comments
ग़ज़ल – २१२२ १२१२ २२
इश्क़ न हो तो ये जहां भी क्या ,
गुलसितां क्या है कहकशां भी क्या |
पीर पिछले जनम के आशिक़ थे ,
यूँ ख़ुदा होता मेहरबां भी क्या |
औघड़ी फांक ले मसानों की ,
देख फिर ज़ीस्त का गुमां भी क्या |
बेल बूटे खिले हैं खंडर में ,
खूब पुरखों का है निशाँ भी क्या |
ख़ुशबू लोबान की हवा में है ,
ख़त्म हो जायेंगा धुआँ भी क्या |
माँ का आँचल जहां वहीँ जन्नत ,
ये जमीं क्या…
ContinueAdded by Abhinav Arun on December 16, 2013 at 3:30pm — 22 Comments
ग़ज़ल –
२१२२ १२१२ २२
अक्षरों में खुदा दिखाई दे
अब मुझे ऐसी रोशनाई दे |
हाथ खोलूं तो बस दुआ मांगूँ,
सिर्फ इतनी मुझे कमाई दे |
रोशनी हर चिराग में भर दूं ,
कोई ऐसी दियासलाई दे |
माँ के हाथों का स्वाद हो जिसमें,
ले ले सबकुछ वही मिठाई दे |
धूप तो शहर वाली दे दी है,
गाँव वाली बरफ मलाई दे |
बेटियों को दे खूब आज़ादी ,
साथ थोड़ी उन्हें हयाई दे…
ContinueAdded by Abhinav Arun on November 14, 2013 at 7:45pm — 41 Comments
साहित्य दीप ! शब्दों की ज्योति !!…
ContinueAdded by Abhinav Arun on October 31, 2013 at 8:30pm — 18 Comments
ग़ज़ल –…
ContinueAdded by Abhinav Arun on October 6, 2013 at 8:42am — 21 Comments
ग़ज़ल –…
ContinueAdded by Abhinav Arun on October 6, 2013 at 8:39am — 39 Comments
ग़ज़ल –
२१२२ १२१२ २२
तुझसे मिलने की इल्तिज़ा की है ,
माफ़ करना अगर खता की है |
राज़ पूछो न मुस्कुराने का ,
चोट खायी तो ये दवा की है |
अब मुझे हिचकियाँ नहीं आतीं ,
मेरे हक़ में ये क्या दुआ की है |
फूल तो सौ मिले हैं गुलशन में ,
खुशबुओं की तलाश बाकी है |
तुम इसे शाइरी समझते हो ,
मैंने बस राख में हवा की है |
एक पत्थर ख़ुशी से पागल था ,
आईनों ने ये इत्तिला…
ContinueAdded by Abhinav Arun on September 19, 2013 at 4:30am — 46 Comments
ग़ज़ल –
२१२२ १२१२ २२
इल्म की रोशनी नहीं होती ,
ज़िन्दगी ज़िन्दगी नहीं होती |
एक कोना दिया है बच्चों ने ,
और कुछ बेबसी नहीं होती |
रंग आये कि सेवई आये ,
तनहा कोई ख़ुशी नहीं होती |
दिल के टूटे से शोर होता है ,
ख़ामुशी ख़ामुशी नहीं होती |
सारे चेहरे छुपे मुखौटों में ,
दिल में भी सादगी नहीं होती |
माँ के आँचल से दूर हैं बच्चे ,
बाप से बंदगी नहीं होती…
ContinueAdded by Abhinav Arun on September 13, 2013 at 5:30am — 44 Comments
कविता – प्रेम के स्वप्न
हां , बदल गयी हैं सड़कें मेरे शहर की
मेरा महाविद्यालय भी नहीं रहा उस रूप में
पाठ्य पुस्तकें , पाठ्यक्रम जीवन के
बदल गए हैं सब के सब
कई कई बरस कई कई कोस चलकर
जाने क्यों ठहरा हुआ हूँ मैं
आज भी अपने पुराने शहर
शहर की पुरानी सड़कों पर
उन मोड़ों के छोर पर
बस अड्डे और चाय की दुकानों पर भी
जहां देख पाता था मैं तुम्हारी एक झलक
हाँ , मैंने तुम्हें…
ContinueAdded by Abhinav Arun on August 29, 2013 at 7:43pm — 31 Comments
कविता - छोड़ दे झंडे !
छोड़ दे झंडे और झंखाड़े
उठाले परचम पकड़ अखाड़े
मत फंदों और जाल में फंस तू
ज़हर बुझे दातों से डंस तू
देख कोई भी बच न पाए
व्यूह तिमिर का रच न पाए
षड्यंत्रों की खाल उधेड़
ऊन भरम है ख़ूनी भेड़
भीतर भीतर काले दांत
मूल्य हज़म हों ऐसी आंत
कर पैने कविता के तीर
अन्धकार की छाती चीर
विमुखों और उदासीनों को
भाले बरछी संगीनों को
जो चेतन हैं तू उनको…
ContinueAdded by Abhinav Arun on August 22, 2013 at 6:29am — 22 Comments
ग़ज़ल -
कहकहों के दायरे में दिल मेरा वीरान है ,
गाँव के बाहर बहुत खामोश एक सीवान है |
उंगलियाँ उठने लगेंगी जब मेरे अशआर पर ,
मान लूँगा मैं कि मेरे दर्द का दीवान है |
वो सुनहरे ख्वाब में है सत्य से कोसो परे ,
आदमी हालात से वाकिफ मगर अनजान है |
छू के उस नाज़ुक बदन को खुशबुओं ने ये कहा ,
ज़िन्दगी से दूर साँसों की कहाँ पहचान है |
बढ़ रहा है कद अँधेरे का शहर में देखिये ,
हाशिये पर गाँव का…
ContinueAdded by Abhinav Arun on August 20, 2013 at 5:04am — 27 Comments
ग़ज़ल -
किसी ने यूँ छुआ सा ,
मुझे कुछ कुछ हुआ सा |
मैं हर शब् हारता हूँ ,
ये जीवन है जुआ सा |
कसावट का भरम था ,
नरम थी वो रुआ सा |
नज़र खामोश उसकी ,
असर उसका दुआ सा |
कहीं कुछ टीसता है ,
कि धंसता है सुआ सा |
मैं हल खींचूँ अकेले ,
ले काँधे पर जुआ सा |
मधुर सी चांदनी है ,
मिला महुआ चुआ सा |
ये माँ का याद आना…
ContinueAdded by Abhinav Arun on August 18, 2013 at 6:30pm — 21 Comments
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