ग़ज़ल –
2222 2112
दोपहरी में छाँव लिखूं ,
जब भी अपना गाँव लिखूं |
जन्नत की जब बात चले ,
अपनी माँ के पांव लिखूं |
पांचाली की पीर बढ़ी ,
दुर्योधन के दांव लिखूं |
दिल दिल्ली से टूटा है,
खुल के अब डुमरांव लिखूं |
सड़कों पर विश्राम नहीं ,
पगडण्डी की ठांव लिखूं |
* सर्वथा मौलिक और अप्रकाशित ।
Comment
सरल शब्दों से गहन बात करना इसे ही कहते हैं .. दिल से बधाई लें, भाईजी.
वाह वाह !
मिसारों का वज़्न 2 2 2 2 2 2 2 लिखना था. फेलुन फेलुन ... फा... के अनुसार वो भी सही होगा.
शुभ-शुभ
आ. श्री कपीश जी रचना पढने , पसंद , करने और विचार प्रकट करने के लिए हार्दिक धन्यवाद आपका !!
आदरणीय श्री अखिलेश जी क्या कहने दिल खुश हुआ आदरणीय , इस दाद के लिए सौ सौ आभार ह्रदय से :-) !!
आ.डॉ प्राची मैडम , ग़ज़ल पसंद आई शुक्रगुज़ार हूँ आपका , धन्यवाद बहुत बहुत !!
कम शब्दों में ज्यादा कहना कोई आप से सीखे । हार्दिक बधाई आत्मीय अभिनव अरुण जी
आ० अभिनव अरुण जी
बहुत सुन्दर अशआर कहे है..
जन्नत की जब बात चले ,
अपनी माँ के पांव लिखूं |.....वाह !
हार्दिक बधाई
बहुत आभार आदरणीय कुंती जी , आशीर्वाद के लिए शुक्रिया नमन वंदन !!
एक एक लाइन चीख रही है ...अरून जी...द्रौपदी की तरह.
परम आदरणीय श्री arun kumar nigam जी यह आपका अनुराग है ..आपका आशीर्वाद पा धन्य हुआ , सौभाग्य मेरा , आभार !!
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