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राज़ नवादवी: एक अपरिचित कवि की कृतियाँ- ३

(आज से उन्नीस वर्ष पूर्व लिखी रचना)

एक घर मेरा भी  होगा......

 

सोचा था

चाँद की उपत्यका में

एक घर मेरा भी  होगा

जहाँ और न होंगे इस धरा के तनाव

जहाँ और न होगा

मानवी संबंधों का छुपाव

जहाँ शब्द

समय के परिप्रेक्ष्य में न देखे जाएँगे

जहाँ निरभ्र आकाश सा होगा

निरायाम, अतल जीवन

संवेदनाओं की उर्मियों में जहाँ

कोई न होगा अन्येतर बल

हाँ , बस होगा जहाँ

तुम्हारी स्मृति में उन्मीलित

नयनों के लिए

निर्बाध संसृति का विस्तार

और मेघखंडों से जहाँ

स्वप्न बन के उतरेंगे

तुम्हारे निश्शेष स्पर्शों के आवर्त.....

सोचा था यूँ ही

अकारण , अयाचित्

चाँद की उपत्यका में

एक घर मेरा भी  होगा !!

 

© राज़ नवादवी

सोशल वर्क हॉस्टल, नई दिल्ली

(१२ बजे दिन, १३/०२/१९९३)

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