जब मेरे जीवन की बाती
फफक-फफक बुझने लगे
और मोह छनकर हृदय से
प्राण को दलने लगे
लोचन मेरे जब नीर लेकर
मन के कलुष धोने लगे
और पाप नभ सा मेरा वो
प्रलय-नाद करने लगे
Comment
आदरणीय सौरभ जी, आपके उद्गार प्राण फूंकने वाले हैं । आपने जिन मूलभूत बिन्दुओं की बात की उसे मैं समझ नहीं पाया यदि कुछ चीजें मुझे सीखनी चाहिए, तो कृपया उसका अवश्य उल्लेख करें । मैं बहुत आभारी होउंगा क्योंकि सही दिशा-निदेश मिलना आवश्यक है, आशा है आप मेरी मदद करेंगें, सादर
हे अधर अपनी धरा को
क्षणभर सनातन साज देना
दूर तारों में छिपा जो
उसको जरा आवाज देना
बहुत ही सुन्दर भावाभिव्यक्ति ! अभिभूत कर दिया आपने, भाई.
भाई राजेश कुमारजी, आपकी इस मंच पर की अबतक की समस्त रचनाओं को दख-पढ़ कर आपके प्रति असीम उम्मीदों से भर गया हूँ तो आपको आश्चर्य नहीं होना चाहिये. कुछ मूलभूत विन्दुओं को आप यदि साध लें तो आपमें उच्च रचना-संभावनाएँ है. आपका अद्भुत भाषा-संस्कार सम्मोहित करता है. आपके रचना-संसार को आपकी समृद्ध भाषा आवश्यक आधार व संबल देती है.
शुभ-शुभ.
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