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मैं तो हस्ताक्षर करता था ? (लघुकथा)

सर! एक काम था आप से,अगर इजाजत हो तो कहूं-अर्जुन बाबू ने लेखपाल से कहा।
हां कहिए-वह उन्हें ऊपर से नीचे तक देखते हुये बोला।
सर! नसीबदार से कहिए कि वह इन कागजातों से अपने दस्तखत हटा ले-अर्जुन ने अपना चश्मा ठीक करते हुये कहा।
लेखपाल गरज पड़ा-बड़े बेवकूफ हो तुम?क्या बकवास करते हो?कहीं साइन भी परिवर्तनेबुल है,और वो भी डेड आदमी के?
अरे साहब! काहे को एंग्री होते हो(अपने आदमी की तरफ मुड़कर)तिलक ब्रीफकेस इधर ला न।हां सर! ये 50-50 के 10 बंडल हैं-अर्जुन बाबू ने ब्रीफकेस लेखपाल की ओर बढ़ाते हुये कहा।
लेखपाल हंसते हुये बोला-ओह! ठीक है,ठीक है।
अगले दिन अर्जुन बाबू वह कागजात लेकर नसीबदारिन के पास पहुंचे और बोले-माई यहां मरद के अंगूठे के पास अपना अंगूठा लगा दो।
वहां स्वर्ग में नसीबदार अचम्भित था,वह बोल पड़ा-मैं तो हस्ताक्षर करता था,ये अंगूठा कहां से........................................?

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Comment by Ashok Kumar Raktale on September 1, 2012 at 8:13am

आदरणीय त्रिपाठी जी

                         सादर, आज की भ्रष्ट व्यवस्था की और इंगित करती सुन्दर लाघुकथा.बधाई.

कृपया ध्यान दे...

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