(चार चरण : विषम चरण
१२ मात्रा व सम चरण ७ मात्रा सम चरणों का अंत गुरु लघु से )
प्रात जागती नारी, नहिं आराम.
साथ नौकरी करती, है सब काम..
प्यार शक्ति दे तभी, उठाती भार.
नारी बिन यह दुनिया, है लाचार..
प्रेम स्नेह की करती, जग में वृष्टि.
पूजित नारी जग में, जिससे सृष्टि..
त्याग तपस्या सेवा, तेरे नाम.
शक्ति स्वरूपा नारी, तुझे प्रणाम..
सत्ता मद में गर्वित, नर है आज.
अखिल विश्व में नारी, का ही राज..
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--इं० अम्बरीष श्रीवास्तव 'अम्बर'
Comment
मैं आपसे पहले ही कह चुका हूँ ....................'सही कहा है आपने नागार्जुन द्वारा रचित यह बरवै आधारित काव्य ही है'' अर्थात बरवै से प्रेरित कविता .....बस इसमें दो पंक्तियों में १२, ७ पर यति का निर्वहन हुआ है अन्य शेष दो में नहीं हुआ है |
आप द्वारा कहा गया है कि .....
//आंगन से हटकर(,) कुछ(,) थोड़ी दूर ----१०,९ (या १२-७ भी कहा जा सकता है परन्तु उचित नहीं )//
"आंगन से हटकर कुछ, थोड़ी दूर" ....में १२-७ क्यों उचित नहीं है कृपया स्पष्ट करें .....
मैं आपसे पहले ही कह चुका हूँ कि इसे प्रस्तुत करने का उद्देश्य मात्राएँ गिनना नहीं वरन पंक्ति के अंत में आये हुए 'तगण' को इंगित करना ही है.....
जय होऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽ
आदरणीय भाई श्याम जी का मैं मंच पर स्वागत करता हूँ.
आगे, जो चर्चा चल रही है, उससे मन मुग्ध है. मंच के सदस्यों को आदरणीय अम्बरीषजी तथा श्याम जी की चर्चा से जानने को बहुत कुछ मिल रहा है.
बस एक अनुरोध है. आदरणीय श्यामजी, हम सभी आपस में सीखते-जानते हैं, यह जान कर कि कोई परिपक्व नहीं है. हम परस्पर बातचीत के स्वर को थोड़ा नर्म रखें. बस.
आदरणीय अम्बरीष जी और श्यामजी की बातों से हम सभी संतुष्ट हैं.
सादर
सही कहा है आपने नागार्जुन द्वारा रचित यह बरवै आधारित काव्य ही है ....परन्तु इसके प्रस्तुत करने का उद्देश्य १२, ७ पर यति दिखाना नहीं अपितु अंत में तगण को इंगित करना है !
स्वागत है अशोक जी |
धन्यवाद श्याम जी,
मेरे नहीं... श्री जगन्नाथ प्रसाद 'भानु' जी के कथन को उचित मानिए ...
प्रिंट की गलतियाँ हैं या संपादन की? यह तो निश्चित नहीं पर कुछ और बरवै आधारित काव्य भी देखिये ....जिनमें प्रिंट या संपादन की गलतियाँ शायद न हों ....
आंगन से हटकर कुछ थोड़ी दूर
एक झोंपड़ी थी उत्तर की ओर
गौतमदार अहिल्या मेरा नाम
यहीं कहीं होंगे मुनि भी हे राम
नागार्जुन
सादर
सादर,
आभार आदरणीय अम्बरीश जी.
धन्यवाद आदरणीय सौरभ जी !
भाई अशोक कुमार रक्तले जी व डॉ० श्याम गुप्त जी ! सभी बरवै शुद्ध है ! वस्तुतः बरवै के अंत में जगण की अनिवार्यता नहीं हैं अपितु बरवै जे अंत में सिर्फ गुरु लघु होना ही काफी है ! जगण से सिर्फ इसकी रोचकता होती है ! इसमें तगण का प्रयोग बहुधा ही देखा गया है .....
छंद प्रभाकर के रचयिता श्री जगन्नाथ प्रसाद भानु जी के अनुसार बरवै के अंत में जगण होना रोचक होता है परन्तु तगण का प्रयोग भी देखा जाता है ! अर्थात उनके अनुसार अंत जगण होने से रोचकता तो है पर इसकी अनिवार्यता नहीं है !
कृपया निम्नलिखित उदहारण देखें !
का घूँघट मुख मूदहु नवला नारि।
चाँद सरग पर सोहत यहि अनुहारि।17।( बरवै रामायण बालकाण्ड/पृष्ठ-4)
आपके सभी बरवै शिल्प से अति सुगढ़ हैं, आदरणीय
सादर
आदरणीय अम्बरीश जी
सादर, आपका बहुत बहुत आभार आपने बहुत अच्छे से समझाया है. मै समझ रहा हूँ सम चरणों कि मात्र अंतिम चार मात्राओं पर ध्यान दूँ पांचवी मात्रा ताराज का भ्रम पैदा कर रही है मै उस पर ध्यान नहीं दूंगा.आभार.
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