(बहरे रमल मुसम्मन मख्बून मुसक्कन
फाइलातुन फइलातुन फइलातुन फेलुन.
२१२२ ११२२ ११२२ २२)
जब भी हो जाये मुलाक़ात बिफर जाते हैं
हुस्नवाले भी अजी हद से गुजर जाते हैं
देख हरियाली चले लोग उधर जाते हैं
जो उगाता हूँ उसे रौंद के चर जाते हैं
प्यार है जिनसे मिला उनसे शिकायत ये ही
हुस्नवाले है ये दिल ले के मुकर जाते हैं
माल लूटें वो जबरदस्त जमा करने को
रिश्तेदारों के यहाँ शाम-ओ-सहर जाते हैं
घर बनाने को चले जो भी नदी को पाटें
बाढ़ में बह के वही लोग बिखर जाते हैं
बाढ़ जनता की मुसीबत है अफ़सरों का मज़ा
उनके बिगड़े हुए हालात सुधर जाते है
प्यार से जब भी मिले प्यार जताया 'अम्बर'
क्यों ये कज़रारे नयन अश्क से भर जाते हैं
--इं० अम्बरीष श्रीवास्तव 'अम्बर'
Comment
धन्यवाद आदरणीय सौरभ जी !
आदरणीय अम्बरीष भाईजी, प्रस्तुत ग़ज़ल की प्रस्तुति हेतु पुनः सादर साधुवाद.
इस प्रस्तुति पर व्यापक चर्चा हुई है और मैं परिसंवाद श्रोता की हैसियत श्रवण-सुख का आनन्द लेता रहा. इतना अवश्य है कि सदस्यों के मध्य इस ग़ज़ल पर हुए संवाद और और परिचर्चा ने ओबीओ की स्तरीयता तथा इसके वातवरण की ऊँचाई को अधिक रेखांकित किया है.
वैसे आपकी कलम से प्रसूत हर प्रविष्टि हर तरह के सदस्य को कुछ न कुछ अवश्य उपलब्ध कराती है, कुछ अति विशिष्ट तो कुछ सामान्य.
आंचलिक शब्दों के प्रयोग पर मैं इतना ही कहूँगा कि किसी निर्णय पर आने से पहले हम पूरे विषय को समुच्चय में देखें. ऐसे शब्दों का प्रयोग संयत, सटीक और सुखद हो तो ही उचित है. यह तथ्य मैं व्यक्तिगत किन्तु सर्वमान्य तथा सर्वस्वीकृत मंतव्यों के आधार पर कह रहा हूँ. इसके ठोस कारण भी हैं.
सादर
धन्यवाद आदरणीय गणेशजी बागी जी ! हमारे यहाँ भोजपुरी प्रचलित नहीं है! अतः एक समान शब्दों के आशय अलग-अलग हैं ! सादर !
आदरणीय अम्बरीश भाई, आपकी इस ग़ज़ल पर व्यापक चर्चा हुई है निश्चित ही नवांकुरों को बहुत कुछ जानने को मिलेगा | रही शब्द पसरने का तो...भोजपुरी दृष्टिकोण से.......
पसारना = फैलाना .....जरा गेहूं छत पर पसार दीजिये, चादर अरगनी पर पसार दीजिये |
पसरना = खुद या स्वतः फ़ैल जाना......
खिचड़ी बहुत पतली है थाली में पसर गयी |
पसरना का प्रयोग इंसान के लिए .....आते सोफा पर पसर गये, मतलब पैर फैला कर शरीर ढीला कर सोफा पर करीब करीब अधलेटा अवस्था में बैठना |
एक और प्रयोग --- फलां मेहमान चार दिन से आकर पसर गये हैं जाने का नाम ही नहीं लेते, वस्तुतः यहाँ भी पसरने का अर्थ वही है जो ऊपर लिखा है , किन्तु इसको वाक्य प्रयोग में रुकने के भाव वो भी थोड़ा झल्लाहट की अवस्था में प्रयोग किया गया है |
आदरणीय,
//सिद्ध हुआ कि क्यों उस्ताद लोग ग़ज़ल में आंचलिक शब्दों से बचने की सलाह देते हैं//
बिल्कुल सही कहा आपने.......हमारे यहाँ कहते हैं कि फलां के यहाँ मेहमान ऐसे पसर गए हैं कि जाने का नाम ही नहीं ले रहे .....
यह भी सही कहा आपने .......बशीर बद्र साहिब इलाहाबाद से ही सीतापुर आये थे ! यहाँ पर कुछ और निखरे ....फिर बरसों मेरठ कालेज में उर्दू विभाग के विभागाध्यक्ष रहे. एक हादसे के दौरान बशीर साहब का घर आग में जल गया और उसके कुछ समय बाद उनकी पत्नी का भी देहांत हो गया. इन दोनों हादसों ने बशीर साहब को तोड़ कर रख दिया. उन्होंने दुनिया और अपनी शायरी से नाता तोड़ लिया. दोस्तों और रिश्तेदारों के बेहद इज़हार के बाद वो भोपाल चले गये जहाँ उनकी मुलाकर डा. राहत से हुई जिनसे बाद में उन्होंने निकाह भी किया. डा. राहत ने बशीर साहब के टूटे दिल को फिर से जिंदगी की ख़ूबसूरती से रूबरू करवाया. उसके बाद बशीर साहब ने फिर मुड़ कर नहीं देखा.और अब वे भोपाल में ही हैं :-)))
आदरणीय,
सिद्ध हुआ कि क्यों उस्ताद लोग ग़ज़ल में आंचलिक शब्दों से बचने की सलाह देते हैं
इलाहाबाद और आसपास के क्षेत्र में पसर जाना आलस्य पूर्ण लेटने को कहते हैं
जैसे = खटिया मिलतै पसर गएव, काम धाम नै ना का ?
जबरन टिक जाने का अर्थ हम (इलाहाबाद और आसपास क्षेत्र के निवासी) ले ही नहीं सकते क्योकि यहाँ पर यह अर्थ प्रचिलित नहीं है
मित्रवर,
खुले माहौल से मेरा तात्पर्य बातचीत के खुले माहौल से था जैसा ओ बी ओ पर है, जिसमें लोग बिना बुरा माने एक दूसरे की कमियों पर (भी) चर्चा कर सकते हैं, न कि क्षेत्र विशेष के साहित्यिक माहौल से,
वैसे बता दूं कि बशीर बद्र साहिब कई साल तक इलाहाबाद की गलियों की ख़ाक भी छान चुके हैं और यहाँ से निकल कर फिर भोपाल में ही बसे और अब भी भोपाल में ही हैं :)))
//वहाँ शायद ओ बी ओ जैसा खुला माहौल अभी न बन सका हो//
आदरणीय भाई वीनस केसरीजी, बिल्कुल खुला माहौल है जी ........पर बात अपने ओबीओ जैसे खुले माहौल की नहीं है, अपितु 'पसर जाने' जैसे आंचलिक शब्द के अर्थ की है हमारे यहाँ की बोलचाल की स्थानीय भाषा में 'पसर' जाने से तात्पर्य सिर्फ जबरन टिक जाने से है संभवतः तभी मुझे यहाँ पर टोका नहीं गया होगा क्योंकि जहाँ डॉ० अब्दुल अज़ीज़ 'अर्चन' जैसे व्यक्ति हों वहाँ ऐसा हो ही नहीं सकता कि किसी भी ऐब पर टोका न जाय ! आपसे एक बात और साझा करना चाहूँगा कि सीतापुर व खैराबाद के खुले माहौल में ही बरसों तक रहकर जनाब बशीर बद्र साहब ने "खुद राह बना लेगा बहता हुआ पानी है" जैसी सशक्त गज़ल कही थी | तब इनकी पोस्टिंग़ सीतापुर में ही थी | सादर
हालाँकि इस ग़ज़ल को मैं बज़्म-ए-सुखन की नशिस्त में पढ़ चुका हूँ परन्तु आश्चर्य है कि इस ओर किसी ने भी इंगित नहीं किया !
आदरणीय अम्बरीश जी,
वहाँ शायद ओ बी ओ जैसा खुला माहौल अभी न बन सका हो
खैर,
आपने समुचित सुधार कर निश्चित ही ग़ज़ल के स्तर को बढ़ाया है
सादर
स्वागत है आदरणीय सौरभ जी, धन्यवाद मित्र ....आपकी दृष्टि में भी यदि कोई कमी लगे तो उसे इंगित अवश्य करें ....सादर
स्वागत है आदरणीय प्रधान संपादक जी, ग़ज़ल की तारीफ़ करने के लिए बहुत-बहुत दिली शुक्रिया.... सादर
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