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ग़ज़ल : आ मेरे पास तेरे लब पे जहर बाकी है

बहर : २१२२ ११२२ ११२२ २२ 

रह गया ठूँठ, कहाँ अब वो शजर बाकी है

अब तो शोलों को ही होनी ये खबर बाकी है

है चुभन तेज बड़ी, रो नहीं सकता फिर भी

मेरी आँखों में कहीं रेत का घर बाकी है

रात कुछ ओस क्या मरुथल में गिरी, अब दिन भर

आँधियाँ आग की कहती हैं कसर बाकी है

तेरी आँखों के समंदर में ही दम टूट गया

पार करना अभी जुल्फों का भँवर बाकी है

तू कहीं खुद भी न मर जाए सनम चाट इसे

आ मेरे पास तेरे लब पे जहर बाकी है

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Comment by Arun Sri on December 18, 2012 at 7:47pm

तू कहीं खुद भी न मर जाए सनम चाट इसे

आ मेरे पास तेरे लब पे जहर बाकी है .......... क्या बात है ! मज़ा आ गया पढकर ! :-))

बढ़िया गज़ल हुई है ! वाह !

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on December 17, 2012 at 3:18pm

बहुत बहुत धन्यवाद बागी जी, आपके इस स्नेह के लिए बहुत बहुत धन्यवाद


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on December 16, 2012 at 8:43pm

//है चुभन तेज बड़ी, रो नहीं सकता फिर भी

मेरी आँखों में कहीं रेत का घर बाकी है//

गज़ब गज़ब गज़ब, बहुत ही सुन्दर शेर , सभी अशआर बहुत ही उम्दा लगे , कुल मिलाकर शानदार ग़ज़ल धर्मेन्द्र भाई , बधाई स्वीकार करें |

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on December 11, 2012 at 12:29pm

vijay nikore जी, बहुत बहुत शुक्रिया जनाब।

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on December 11, 2012 at 12:27pm

Raj Lally Sharma जी, शुक्रिया जनाब

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on December 11, 2012 at 12:27pm

DEEPAK SHARMA 'KULUVI' जी, शुक्रिया जनाब

Comment by vijay nikore on December 11, 2012 at 5:02am

      धर्मेन्द्र जी, बहुत ही प्यारी और नाज़ुक ख़्यालों वाली

      गज़ब की गज़ल लिखी है आपने।

      विजय निकोर

Comment by राज लाली बटाला on December 11, 2012 at 12:38am

bahut khoob !

Comment by Deepak Sharma Kuluvi on December 10, 2012 at 12:45pm

BAHUT KHOOB JANAW

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on December 1, 2012 at 8:55pm

Raj Tomarजी, शुक्रिया जनाब

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