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कहे तो कैसे बोलो.....

चातक मन प्यासा फिरे, दोनों आँखें मूँद .
पियूँ-पियूँ रटता रहे, पिए न एको बूँद ...
प्यास कैसे बुझ पाय ?
मन की मन में रह जाय...
रूठा आज गुलाब है, मधुकर है बेचैन
भूली सारी गायकी,कटे न काटे रैन
कहाँ बोलो अब जाय..
प्रीति को कैसे पाय?
स्वाति टपके सीप में, मोती सी बन जाय
रेत,पंक में जा गिरे , तो दलदल ही कहलाय
संग का असर न जाय
कोई कैसे समझाय ?
मंहगाई सुरसा भई, अतिथि हुए हनुमान...
सुरसा-मुख घटना नहीं,तुम्ही घटो मेहमान...
कोई अब क्या कह पाय?
जान के लाले आये....
अबकी जाड़े में चली ऐसी लूक बयार..
पोर पोर कुम्हला गया, मानव मन का प्यार..
पीर बढती ही जाय ...
कि अबतो सहा न जाय
डॉ.ब्रिजेश कुमार त्रिपाठी

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Comment

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Comment by Dr.Brijesh Kumar Tripathi on October 30, 2010 at 6:21am
@ Salilji
आदरणीय आचार्य जी प्रणाम,
आपका आशीर्वाद मुझे मिला ..यह परमपिता परमेश्वर की असीम कृपा है आपके सुझाव पर तुरंत अमल करता हूँ कृपया कृपा बनाये रखें
Comment by sanjiv verma 'salil' on October 30, 2010 at 1:08am
स्वाति टपके सीप में, मोती सी बन जाये
रेत,पंक में जा गिरे , तो दलदल ही कहलाये

माननीय बृजेश जी अच्छे दोहे... बधाई...
तीसरी पंक्ति जोड़ देने से नवीनता आई है. कुछ अन्य कवियों ने दुमदार दोहे नाम से एक अतिरिक्त अर्धाली और दो दुम के दोहे नाम से तीसरी पंक्ति के साथ दोहा कहा है.
उक्त दोहे में 'ये' के स्थान पर 'य' करना होगा दोहे के पदांत मन लघु होने जरूरी है. स्वाती टपके सीप में, तो मोती बन जाय.
रेत पंक में जा गिरे, तो दलदल कहलाय....
Comment by rashmi nishad on October 29, 2010 at 10:37am
waah........
Comment by विवेक मिश्र on October 29, 2010 at 12:12am
/मंहगाई सुरसा भई, अतिथि हुए हनुमान...
सुरसा-मुख घटना नहीं,तुम्ही घटो मेहमान.../
हा हा हा.. बिलकुल सत्य वचन हैं. महंगाई को तो नियंत्रित किया नहीं जा सकता, अपने अतिथिगणों से ही निवेदन करने का चारा बचता है. बहुत ही सुन्दर और लयबद्ध प्रस्तुति. पढ़कर आनन्द आ गया. हार्दिक बधाई.
Comment by Dr.Brijesh Kumar Tripathi on October 27, 2010 at 6:22pm
नवीन जी...कदरदानी के लिए शुक्रिया.. आपके ये अल्फाज़ एक बेहतरीन तोहफा हैंमेरे लिए...आभार

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