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अब तो मेरी सांसे भी /तेरी जिद से हार गई

मेरी बिखरी सुबह ओंटकर
तुम्‍हीं खड़े थे बाट जोहकर
कभी रूठकर कभी मनाकर
भाव भंगिमा नए दिखाकर
हर फिसलन पर भीत उकेरे
तुम्‍हीं थाम उस पार गई

लिखकर पहला पत्र तुम्‍हीं को
कलम मेरी पथ हार गई

सदा सुहागन तेरी काया
जब समेटती मेरी छाया
और ठठाते हुल्‍लड़ दिन पर
दांत पीसता सूरज जी भर
तभी दमकते श्रृंग ओट से
तुम्‍हीं तो हर दुख तार गई

कर अधीन हर ताप हमारा
तुम्‍हीं बही रस धार बनी

कच्‍ची रातें ओस नहाई
खोंस कमर जब पूनो आई
एक नटखट हरकारा आया
चांद बुझा ध्रुवतारा आया
दे प्रबोध औ नीर तुम्‍हीं तो
मुझपर अग-जग वार गई

लपक उठा सारी दुश्‍वारि
तुम्‍हीं मुझे झनकार गई

मांगा तुमने कहां देह था
कलुष हीन वह तेरा नेह था
ना थी कोई अंधी गंध ही
आकुल प्रियतम मेरा द्वंद ही
गहन गुहा दुर्गम जीवन के
तुम्‍ही तो ले सब भार गई

हठी मंत्र निष्‍पंद पड़े जब
तुम्‍हीं उन्‍हें ललकार गई

मन बंजारा फिर सब हारा
डूबा फिर से कूल किनारा
काहे फिर ना दरस दिखाते
निष्‍ठुर क्‍यों ना जिया जुड़ाते
मायाजल हदमद मन सीझै
युगरूप बहुत मनुहार हुई

हे अरूप तुम्‍हें पाऊं कैसे
श्‍वांसें भी थक हार गई

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Comment

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Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on January 3, 2013 at 3:43pm

क्या बात है बेहतरीन भावाभिव्यक्ति

Comment by SUMAN MISHRA on January 3, 2013 at 3:02pm

मार्मिक रचना राजेश जी,,,,बहुत सुंदर ,,,,

कृपया ध्यान दे...

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