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संस्मरण .... अमृता प्रीतम जी

संस्मरण ... अमृता प्रीतम जी

यह संस्मरण एक उस लेखक पर है जिसने केवल अपनी ही ज़िन्दगी नहीं जी, अपितु उस प्रत्येक मानव की ज़िन्दगी जी है जिसने ज़िदगी और मौत को,खुशी और ग़म को, एक ही प्याले में घोल कर पिया है  ... जिसके लिए ज़िन्दगी की "खामोशी की बर्फ़ कहीं से भी टूटती पिघलती नहीं थी।"

यह संस्मरण उस महान कवयित्रि पर है जो सारी उम्र कल्पना के गीत लिखती रही...."पर मैं वह नहीं हूँ जिसे कोई आवाज़ दे, और मैं यह भी जानती हूँ, मेरी आवाज़ का कोई जवाब नहीं आएगा।"  उसने एक बार फिर ज़िन्दगी से निवेदन किया,  "तुम्हारे पैरों की आहट सुनकर मैंने ज़िन्दगी से कहा था,  अभी दरवाज़ा बंद नहीं करो हयात। रेगिस्तान से किसी के कदमों की आवाज़ आ रही है।"

इस भूमिका के बाद, अब कह दूँ कि यह संस्मरण है पंजाबी की सर्वश्रेष्ठ लेखिका अमृता प्रीतम से मिलन का, जिनसे मुझको १९६३ में मेरी २१ वर्ष की अल्प आयु में कई बार मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। हर कोई शायद उस पड़ाव पर सोचता है कि वह बहुत बुध्दिशाली है, बहुत कुछ जानता है, समझता है, पर मैं समय के माहौल के लिए उपयुक्त नहीं था। मैं दुनियादारी में बहुत भोला था, सरल था, और अभी भी हूँ।एक बड़ा अंतर था मुझमें और मेरे हम-उम्र वालों में। उनके लिए ज़िन्दगी हँसी-मज़ाक के लिए थी, मैं भी उनके साथ खेलता था, हँसता था, पर अकेले में उदासी की खाई में उतर कर ज़िन्दगी को परखता था ...  ऊपर-नीचे-आगे-पीछे। अमृता जी से मिलने पर पहली बार ही उन्होंने मेरी इस प्रकृति को पहचान लिया।

अमृता जी के लिए उनकी सारी ज़िन्दगी जैसे एक खत थी, ... "मेरे दिल की हर धड़कन एक अक्षर है, मेरी हर साँस जैसे कोई मात्रा, हर दिन जैसे कोई वाक्य, और सारी ज़िन्दगी जैसे एक ख़त। अगर किसी तरह यह ख़त तुम्हारे पास पहुँच जाता, मुझे किसी भी भाषा के शब्दों की मोहताजी न होती।"

मैं उस समय तक अमृता प्रीतम जी की कई पुस्तकें शौक से पढ़ चुका था ...‘रंग का पत्ता’, ‘अशु’, ‘एक थी अनीता’, ‘बंद दरवाज़ा’, आदि ...  अब धर्मयुग पत्रिका में उनकी एक कविता प्रकाशित हुई जिसके नीचे उनका पता भी लिखा हुआ था ... K-25 हौज़ खास, नई दिल्ली। मैं बहुत प्रसन्न हुआ। मैं भी तब नई दिल्ली में ही रहता था, सोचा, कितना अच्छा हो कि यदि उनसे संपर्क हो जाए। अत: एक छोटे-से पत्र में अपना परिचय दे कर उन्हें लिखा कि मैं उनसे मिलने को उत्सुक हूँ।

बार-बार संकोच हो रहा था कि वह मुझको, एक २१ वर्ष के अनुभवहीन को, अपना समय क्यूँ देंगी, परन्तु मैं गल्त था। हैरान था, विश्वास नहीं हो रहा था जब डाक में मेरे नाम एक लिफ़ाफ़ा आया ... यह अमृता जी का पत्र था ... दूरभाष नम्बर दिया और कहा कि वह मुझसे मिल सकती हैं। सच? मैं २१ साल का ‘बच्चा’ मन ही मन फूला नहीं समा रहा था। खुशी बाँटूं तो किस से? मित्रों को तो साहित्य में रूचि नहीं थी ...  हाँ, मैंने यह खुशी बाँटी एक "उससे" जो अपनी-सी लगती थी, और अपनी भाभी से जिसको मेरी उदास रचनाएँ भी अच्छी लगती थीं। मैं इस खत को हाथ में लिए न जाने कितनी बार सीढ़ियों पर ऊपर-से-नीचे-से-ऊपर गया... जैसे कोई बच्चा हाथ में नया खिलोना लिए मेले में खो जाता है ... खिलोने की खुशी और खो जाने की चिंता!

भारत में १९६३ में घरों में दूरभाष अभी आम नहीं थे। मैं अमीर परिवार से नहीं था, घर में तब दूरभाष नहीं था। लगबघ ८०० गज़ चल कर बाज़ार में अनाज की दुकान पर दुकानदार को ५० पैसे दे कर उसके दूरभाष से अमृता जी से बात करी। उन्होंने स्वयं ही उठाया ... उनकी आवाज़ सुन कर मैं हैरान ... कि जैसे पल भर को मेरे मुँह में आवाज़ नहीं थी। "मैं.. मैं.. विजय निकोर" मेरा नाम सुनने पर उन्होंने कोई दूरी नहीं दिखाई ... कि जैसे उन्हें मेरा नाम याद था। यह ३० मई १९६३ थी, ३ जून को मिलना तय हुआ। कहने लगीं, "कुछ देर से घर पर मज़दूर काम कर रहे हैं, शायद कुछ आवाज़ होगी... आप बुरा न माने तो..।"  मैं ..? मैं बुरा क्या मानता, मेरे तो पाँव धरती पर नहीं टिक रहे थे। मिलने की प्रत्याशा में इस २१ वर्ष के ‘बच्चे’ को रातों नींद नहीं आ रही थी। एक-एक पहर भारी हो रहा था।

३ जून की शाम आई और मैं बस पर दिल्ली के ‘जंगपुरा’ से ‘हौज़ खास’ गया ...... # K-25 पर घंटी बजाई तो दरवाज़े पर अमृता जी खुद ही थीं ... बैठक में ले गईं और बैठने के लिए सोफ़े की ओर संकेत किया। २ लम्बे सोफ़े थे, १ सोफ़ा-कुर्सी थी, और तीनों का रंग अलग -अलग था (इस पर करी बात भी नीचे लिखी है) ।

अमृता जी स्वयं कुर्सी पर बैठीं। सादी सलवार-कमीज़, चेहरे पर रौनक थी, सुखद मुस्कान थी जो मेरी ’‘उत्सुक्तावश चिंता’ को दूर कर रही थी। मेरे चेहरे पर उन्हें कुछ दिखा होगा कि उन्होंने कहा, "आराम से बैठिए, घर की ही बात है"।

पहले थोड़ी इधर-उधर की बात की, और फिर कविता की, उनके साहित्य की ....

विजय, " आप पहले पटेल नगर में रहती थीं न?"

अमृता जी, " हाँ, हाल ही में आए हैं यहाँ, तभी तो कब से घर पर काम चल रहा है।"

वि० ..       "आप तो वैसे मुझसे पहली बार मिल रही हैं, लेकिन मुझको लगता है कि मैं आपसे बहुत बार मिल चुका हूँ। जब-जब आपकी                  

               कोई किताब पढ़ी, नज़्म पढ़ी, उसकी गहराई बहुत अपनी-सी लगी, कि जैसे उसमें मैं आपको देख रहा हूँ, उसे आपसे ही सुन रहा      

               हूँ।"

अमृता जी ने एक हल्की आधी मुस्कान दी, पलकें झपकीं, कि जैसे उन्होंने मेरी बात को,

सराहना को, स्वीकार कर लिया हो।

अ० ..." आप यहाँ दिल्ली में ही रहते हैं?"

वि० ..." हाँ, माता-पिता यहाँ हैं, मैं ४ साल से इन्जनीयरिन्ग कालेज में बाहर था, अभी      

            मई में दिल्ली वापस आया हूँ। फ़ाईनल परीक्षा के नतीजे का इन्तज़ार है।"

अ० ... " आपने मेरी चीज़ें हिन्दी और अन्ग्रेज़ी में ही पढ़ी होंगी?"

वि० ... " हाँ, बहुत सारी तो हिन्दी में, और कुछ अन्ग्रेज़ी में भी। आप तो पंजाबी में

             लिखती हैं न, तो यह हिन्दी और अन्ग्रेज़ी में अनुवाद हैं क्या?"

अ० ... " मैं, जी, actually तो पंजाबी में ही लिखती हूँ, और कभी-कभी हिन्दी में भी।

             अन्ग्रेज़ी की तो सभी translated ही हैं।"

वि० ... "धर्मयुग में आपकी कविता अभी हाल में ही पढ़ी थी, जिसमें आपने लिखा है,

              .... ‘विरह के नीले खरल में हमने ज़िन्दगी का काजल पीसा

                    रोज़ रात को आसमान आता है और एक सलाई माँगता है’

अ० ... " अच्छा वह!"

वि० ... " उसमें एक चीज़ मेरे लिए clear नहीं हुई। वहाँ पर आपने ‘नीला खरल’

             कैसे कहा है?"

अ० ... " वह पंजाबी में इस तरह है जी कि ... आप पंजाबी जानते हैं क्या, तो मैं

             आपको पंजाबी में ही बताती हूँ।

वि० ... " जी, मैं भी पंजाबी हूँ... बोलता हूँ, समझता हूँ। आप गुजरांवाला से हैं, मेरा

             परिवार मुल्तान से है ... मैं लाहोर में पैदा हुआ था।"

अ० ... " अच्छा, फिर तो पंजाबी में ही अच्छी तरह बात कर लेंगे।"

अब वह "नीले खरल" पर प्रश्न का उत्तर पंजाबी में देने लगीं। उनके मुँह से पंजाबी

सुन कर मुझको बहुत अच्छा लगा, कि जैसे वह मुझको अब कुछ ही देर में "अपना"

मान रही हैं। उनके चेहरे पर भी मुझको कुछ और सरलता का आभास हुआ ... बहुत

सादगी दिख रही थी उनमें। इतने ऊँचे स्तर पर.. इतनी सादगी! उनमें अहम नहीं

दिख रहा था।

अ० ...(पंजाबी में) अनुवाद नीचे दिया है.." ए खरल होंदा ए न, जिदे विच ए कुटदे ने,

          ओ नीले पत्थर दा बंढ़या होंदा ए। ऐ इक बड़ा ई खूबसूरत पत्थर होंदा वे, ते

          ओदे अंदर जिवें ज़िन्दगी दा सुर्मा पीसढ़ाँ होवे ... ऐथे ओदी गल कीती ए।

          अनुवाद: यह ओखली होती है न जिसमें किसी चीज़ को कूटते हैं, वह नीले

          पत्थर की बनी होती है। यह एक बहुत ही खूबसूरत पत्थर होता है, तो

          उसमें जैसे ज़िन्दगी का सुर्मा पीसना हो ... यहाँ उसकी बात करी है।

वि०... "और आगे आपने कहा, ‘रोज़ रात को आसमान आता है और एक सलाई

           माँगता है’.. this gives a beautiful anology to life!

अ०...  "पंजाबी में सुनाऊँ? ... रोज़ रातीं अम्बर आंदा ए, ते इक सलाई मंगदा ए।"

वि०...  "इतने थोड़े-से शब्दों में आपने ज़िन्दगी की कि-त-नी गहराई दे दी है!

           सच, हम विरह को रात को ही ज़्यादा अनुभव करते हैं .. नींद के समय।

अ० ... "विजय जी आप हिन्दी में लिखते हैं या ...?"

वि० ... "इससे पहले कि मैं आपके सवाल का जवाब दूँ, आप मुझको यह ‘आप’

            कह कर क्यूँ बुला रही हैं?... मैं तो आपसे कितना छोटा हूँ.. अभी-अभी

            कालेज खत्म किया है।

अ० ... "छोटे भले ही हो, पर समझदारी में, ख़यालों में, शक्ल में, अलग किस्म की

            सचाई उभर रही है, यह समझदारी २१ साल की उम्र की नहीं लगती।

वि० ... "हाँ तो आपके सवाल का जवाब ... जी, ज़्यादातर तो हिन्दी में लिखता हूँ,

            और कुछ अन्ग्रेज़ी में भी ... (अमृता जी को अपने college magazines

            देते हुए) ... यह एक है जो अभी हाल ही में छपी थी। पढ़ कर सुनाऊँ क्या?

अ० ... "नहीं, छपी हुई है तो मैं खुद ही अच्छी तरह पढ़ लूँगी, ज़्यादा अच्छा लगेगा।"

इस पर अमृता जी ने मेरी रचना को पढ़ कर सुनाया, और मुझको भी अपनी रचना

उनके मुँह से सुनी ज़्यादा अच्छी लगी। पढ़ते-पढ़ते अंत में उन्होंने रचना के नीचे

मेरा नाम थोड़ा ज़ोर से पढ़ा ... Vijay Nikore, Electrical Engineering Final Year.

उसी समय उन्हें एक टेलीफ़ोन आ गया... घर पर काम चल रहा था न, उसके बारे में।

अमृता जी किसी से पंजाबी में कह रही थीं, " हाँ जी, मरज़ी दा कम कराण लई, पैसे वी

ते मरज़ी दे ई देणें पैंदें ने न।" ... अनुवाद .. "मर्ज़ी का काम कराने के लिए पैसे भी तो

मर्ज़ी के ही देने पड़ते है न।"

वि० ... "कालेज में मेरे दोस्तों को मेरा लिखना अच्छा नहीं लगता था, उन्हें सिर्फ़

           हँसी-मज़ाक चाहिए था न"

अ० ... " हाँ जी, ऐसा तो होता ही है ... तो आप लिखते कब थे?"

वि० ... "रात को जब सो जाते थे ... लिखने के लिए बस थोड़ी-सी चिंगारी की ज़रूरत

            होती है, एक बार शूरू करो तो कलम लिखती ही चली जाती है।"

अ० ... "हाँ, एक बार शूरू हो जाए बस।" ... एक और magazine में मेरी रचना

            `Knitting Goes On'  को ऊँचा पढ़ते हुए, कहने लगीं, " विजय जी, यह तो

            बहुत ही serious है" ... कुछ हैरानी, कुछ अधखिली मुसकान के साथ, कहने

            लगीं,  "इतनी serious! यह आपके दोस्तों ने, आपके कालेज ने कैसे accept

            कर ली?

उसके बाद मैंने उनसे उनकी अपनी कविताएँ पढ़ कर सुनाने के लिए कहा तो कहने

लगीं, "आज आपकी पढ़ेंगे, अगली बार मिलेंगे तो मैं और सुनाऊँगी" ... उनके यह शब्द

मेरे लिए...खाली २१ साल के युवक के लिए कितना मान्य रखते थे (और रखते हैं) मैं

यहाँ शब्दों में अभिव्यक्त नहीं कर सकता.. मुझे लगा कि मैंने नादानी में कोई गलती

नहीं करी... कि वह खुद ही फिर से मिलने के लिए कह रही हैं।

कहने लगीं, "और कौन-सी चीज़ लाए हो?" ... इस पर मैंने उन्हें अपनी कविता "अंगीठी"

पढ़ने को दी, जिसकी अंतिम पंक्ति थी..‘ माँ, और ऐसा भी तो हो सकता है कि

किसी दिन इस अंगीठी में मिट्टी कम और कालिख अधिक रह जाए ’ ... यह पढ़ते ही

वह कहने लगीं, " यह तो बहुत  ही अच्छी लिखी है ... पढ़ते-पढ़ते हमें भी लगा कि

इसका अंत आप कुछ ऐसा गहरा ही करेंगे! अब मैं आपकी सोच की गहराई को

देख सकती हूँ।"

एक लम्बी साँस ले कर ... (मुझको लगा मेरी ‘अंगीठी’ कविता ने उन्हें किसी हादसे की

याद दिला दी, पर मैंने उस समय कुछ भी कहना ठीक नहीं समझा) ...

कहने लगीं, "इतनी छोटी उम्र में ज़िन्दगी का असली अहसास कैसे हो गया?"

वि० ... "यह बात उम्र की इतनी नहीं है, बात अनुभव की.. अपनी-अपनी प्रकृति की है।"

अ० ...  (पंजाबी में) ... "आहो, आदमी दे experience दे नाल बड़ा फ़रक पैंदा ए। ओ ते

            है, पर ज़िन्दगी दी जेड़ी प्यास होंदी वे, ओदा एहसास बोंताँ नूँ चाली साल दी

            उमर दे बाद ई होंदा ए "

            अनुवाद ... " हाँ, आदमी के experience के साथ बड़ा फ़रक पड़ता है ... पर

            ज़िन्दगी की जो प्यास होती है, उसका एहसास बहुतों को चालीस की आयु के

            बाद ही होता है।"

वि० ... " मेरे सामने तीन किस्म के लोग हैं जो ज़िन्दगी को अलग-अलग तरीके से

             देखते हैं ... एक जो ज़िन्दगी को दूर से देखने में खुश हैं, दूसरे जो ज़िन्द्गी

             से थोड़ा भीग जाते हैं, और तीसरे वह जो ज़िन्दगी को घूँट-घूँट पीते हैं।"

अ० ... " हाँ, writers, philosophers का तो अपना ही angle होता है। देखने को

            आपका भी वैसा ही है। उनकी तो अन्दर से आवाज़ आती है, और बाकी तो

            अपना-अपना तरीका होता है लिखने का जिसे आम दुनिया समझ नहीं सकती।"

            ...और फिर अमृता जी ने मेरी एक और कविता पढ़ी ... अंतिम पंक्ति थी, ...

            ‘इस व्यथित जीवन को वही पहचाने जिसने अश्रुजल से प्यास बुझाई हो’

अ० ... "आपके ख़याल अच्छे हैं, आपकी नज़्में इतनी अच्छी हैं, इनको रसालों में क्यों

            नहीं छपवाते?"

वि० ... "अभी तो कालेज में था तो ऐसा सोचा नहीं, कालेज magazines में देता रहा,

            अब आपने कहा, अच्छी हैं, तो बाहर भी भेजूँगा।"

           "एक बात पूछूँ? आपको इतना लिखने का वक्त कैसे मिलता है?"

अ० ... "यही तो मुश्किल है... आजकल तो और भी कम मिलता है, घर में contractors

            काम कर रहे हैं न।"

अमृता जी ने काम करने वाली से चाय और समोसे लाने के लिए कह रखा था।

वह बना चुकी थी, अत: rolling cart पर tray में चाय,दूध, चीनी और समोसे ले आई।

चाय प्याले में डालने लगी थी, पर अमृता जी ने उसे मना कर दिया, कहने लगीं ...

" मैं अपने हाथ से चीनी-दूध डाल कर बनाऊँगी इनके लिए।"

उसी समय अमृता जी का लड़का 'Sally' भी मिलने के लिए कमरे में आ गया।

अ० ... "यह मेरा बेटा है जी 'Sally' ... Higher secondary अभी खतम करी है,

           exams हो रहे हैं ... engineering में जाने के लिए तैयार था, पर अब

           जाने क्यूँ अचानक खयाल बदल लिया है। Sally, यह विजय हैं, अभी

           engineering का exam दे कर आए हैं, कहते हैं, बहुत मेहनत करनी

           पड़ती है।"

Sally.. " अब मैं Dufferin से Merchant Navy में जाना चाहता हूँ।

अ० ... " इसका कल इम्तहान है और आज खेल रहा है। वैसे Baroda Engineering

             College  में इसे आराम से admission मिल जाती, जान-पहचान भी थी,पर

             अब यह engineering के लिए जाना ही नहीं चाहता।"

मैं Sally से थोड़ी बातें कर रहा था, और अमृता जी ने तब तक प्याले में चाय बना दी

और समोसे के साथ मुझको दी। प्यालों को देख कर मुझको अमृता जी के बारे में

कुछ याद आ गया ... और मैंने उनसे पूछा ....

वि० ... पंजाबी में ... " तुसीं अजकल multi-coloured cup नईं रखे होए?

           इक थां ते लिखया सी न तुसीं, तिन रंग दे कप दे बारे विच ?"

           अनुवाद... "आपने आजकल multi-coloured cups नहीं रखे हुए? आपने एक

                           जगह पर लिखा था न तीन रंगों के कप के बारे में?"

अ० ...  पंजाबी में ... " अच्छा ओ! ओ ते सारे ई टुट गय नें।

                                थुवानूँ इना किदाँ याद रैंदै, कमाल ए!"

            अनुवाद ...   " अच्छा वह! वह तो सारे ही टूट गए हैं," उन्होंने एक बहुत ही

                                उदास लम्बी साँस ले कर कहा।

                              " आपको इतना कैसे याद रहता है, कमाल है!"

वि० ...  पंजाबी में ... " इक काला सी,ओ मातम दे लै, फ़िर पीला, ते तीजा केड़ा सी?"

            अनुवाद    ... " एक काला था, वह मातम के लिए, फिर पीला, और तीसरा ?"

अ० ...   पंजाबी में ..." हाँ जी, काला मातम दा, पीला विरह दा, ते तीजा ’केसरी’ .. ओ

                                शौख़ रंग हौंदा ए। ओ ते सारा ई सैट खतम हो गया ऐ।

                                Readers दी curiosity appreciate करणी पैयगी... इक होर ने

                                वी एदाँ ई क्या सी।

            अनुवाद  ....  " हाँ जी, ’काला’ मातम का, ’पीला” विरह का, और तीसरा ’केसरी"

                               ... केसरी ’शोख़’ रंग होता है। वह तो सारा ही set खतम हो गया

                               है । Readers की curiosity तो appreciate करनी पड़ेगी, एक और

                               ने भी ऐसे ही कहा था।"

वि० ... " Or, shall I say that you write so nice that you go deep into the hearts

             of the readers, and they cannot help remember the details.

             और फिर आपने रंगों के combination तो अभी भी रखे ही हुए हैं (दो सोफ़ा,

             और एक सोफ़ा-चेयर ... तीनों अलग-अलग रंग के थे।

अमृता जी ने सामने की बिलडिंग दिखाई, "वहाँ एक Colonel रहते हैं।"

वि० ... " आपके मकान पर हो रहे काम को देख कर मुझको एक बात याद आ गई है।

             आपने डा० राम दरश मिश्र का नाम सुना होगा, आजकल अहमदाबाद में हैं"

अ० ... " हाँ जी, मैं जानती हूँ"

वि० ... " अभी उनकी एक किताब आई है...‘बैरंग बेनाम चिठ्ठियाँ’ ... उसमें एक नज़्म है,

             ‘निशान’ ... उसकी आखरी लाईनों में उन्होंने कहा है...

              ... तुमने जो मज़ाक-मज़ाक में

                  गीली सीमेंट पर

                  मुलायम पाँव रख दिया था

                  उसका निशान ज्यों का त्यों है।

अ० ... " यह तो बहुत ही अच्छा ख़याल है"

वि० ... " हाँ जी, डाक्टर मिश्र के कहने का अंदाज़ कुछ और ही है"

अ० ... " हाँ जी, बिलकुल"

वि० ... " आपने भी तो कहीं पर लिखा था ... ‘मेरे इश्क के घाव ...’ .."

अ०  ...  " हाँ, अरे, आपको याद है!"

              और फिर अमृता जी कुछ ज़ोर से हँस पड़ीं।

पल-दो-पल की चुप्पी ... उन्होंने पलकें बंद कर लीं ... जैसे भीतर कुछ डस रहा हो,

और फिर कहा, " सुनेंगे?"...और उन्होंने वह ’इश्क के घाव’ की सारी कविता अपने

मुँह सुना दी ... कैसे कहूँ, अमृता जी के संग बीते वह पल कैसे थे, कितने

सुनहले, कितने मर्मस्पर्शी थे!

अ० ...  (मेरे हाथ में एक लेख था, पंजाबी कविता पर ... हरबंस सिंह जी का लिखा)

            " वैसे तुसीं पंजाबी poetry वी पढ़ी ओई ए?"

            अनुवाद ... " वैसे आपने पंजाबी poetry भी पढ़ी हुई है?"

वि० ...  " पंजाबी बोल लेता हूँ। पढ़ना चाहता हूँ पर मुझको गुरमुखी नहीं आती।

              उर्दु poetry भी अच्छी लगती है, मुझको उर्दु पढ़नी नहीं आती, इसलिए

             उर्दु की किताबें हिन्दी script में खरीदता हूँ। सच में, साहिर लुधियानवी

             उर्दु के मेरे सब से favourite poet हैं ... उनमें भी बहुत गहराई है ...

मेरे यह कहते ही अमृता जी ने पलकें भींच लीं, और एक अन्तराल के बाद खोलीं,

और कहा, " आओ, बार ज़्यादा pleasant ए " (आईए बाहर ज़्यादा pleasant है) .. और

balcony की ओर संकेत करते हुए वह मुझको balcony पर ले गईं ... और बड़ी देर

तक वह सामने के बन रहे मकान को देखती रहीं ... दो-मंज़िले--तिमंज़िले मकान के

लिए ऊँची scaffolding लगी हुई थी ... वह चुप, मैं भी चुप। कुछ था जो मुझको

समझ न आ रहा था। क्या मैंने अनजाने कोई गल्ती कर दी थी क्या? मेरा मन अब

अचानक तिलमिला रहा था ... मन भी भारी हो गया था, और scaffolding की ओर

संकेत करते हुए मैंने उस कठिन नीरवता को तोड़ा, और कहा ...

वि० ... पंजाबी में ... " एदाँ क्यों होंदा ए कि मकान बँड़ जांदे ने, फटे उतर जांदे ने,

                                लेकिन ज़िन्दगीयाँ कदी नीं बँड़दीयाँ...?"

           अनुवाद ....   " ऐसा क्यों होता है कि मकान बन जाते हैं, फटे उतर जाते हैं,

                                लेकिन ज़िन्दगीयाँ कभी नहीं बनती।"

वह मेरी आवाज़ से पल भर को मानो चौंक गईं, और फिर उसी पल संभल भी गईं।

कहने लगीं..

अ० ...   पंजाबी में ... " ए ते जी इक खेड होंदा वे ... जेड़ा कदी वी पूरा नईयों होंदा ..।"

            अनुवाद  ...... " यह तो जी एक खेल होता है ... जो कभी भी पूरा नहीं होता।"

वि० ... " हाँ जी, मैं भी रोज़ रात को सोने से पहले कहता हूँ कि कल नया होगा, कल

             मैं नया बनूँगा, पर मुझमें कहीं कुछ नहीं बदलता, बस circumstances बदल

             जाते हैं। हम नहीं बदलते!"

इसके बाद मैंने अमृता जी से विदा ली, कहा ... फिर कभी मिलेंगे, उन्होंने भी कहा,"हाँ"

और फिर "नमस्ते"

              "नमस्ते"

बहुत सालों के बाद मुझको आभास हुआ कि मुझसे क्या गल्ती हुई थी। मुझको

अमृता जी और साहिर जी के रिश्ते के बारे में उन दिनों कुछ नहीं पता था,

और मैं अनजाने साहिर जी का नाम ले बैठा था, उनकी नज़्मों को favourite कह

बैठा था ... अमृता जी के मन की गहरी, बहुत गहरी चोट को मैं अनजाने छू बैठा था।

यह सन १९६३ था ... मैं २१ साल का था। अब ... अब जैसे ज़िन्दगी बीत गई है।

२००५ में अमृता जी जा चुकी हैं, २०१२ में उनके लड़के की मुंबई/बोरीवली में उनके

अपार्टमेंन्ट में किसी ने हत्या कर दी ... कितना कुछ ... कैसे हो जाता है!

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Comment

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Comment by vijay nikore on February 24, 2014 at 8:05am

//कोई शब्द नहीं मिल रहे कैसे और क्या कहूँ ........आँखे नम हो गयी है ...दिल से आपका आभार सर ....आपके इस संस्मरण ने मुझे लगा अमृता जी से मिलवा दिया आभार बहुत बहुत आभार ......//

आदरणीया प्रियंका जी,

 

अभी भाई योगराज जी को आभार प्रकट किया तो जाना कि मैंने आज तक आपकी दी हुई सराहना के लिए आपको धन्यवाद नहीं दिया।

नहीं जानता कि मुझसे यह भूल कैसे हुई, पर जानिए कि मैं बहुत शर्मिन्दा हूँ। अमृता जी अभी भी आपके, मेरे और न जाने कितने हज़ारों लोगों के पास हैं और रहेंगी। सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीया प्रियंका जी। कृपया ऐसे ही मनोबल देती रहें।

Comment by vijay nikore on February 24, 2014 at 7:58am

//अमृता जी के साथ आपका साक्षात्कार पढ़ना मेरे लिए बहुत ही रोमांचकारी रहा //

मैं प्रिय अमृता प्रीतम जी से जब-जब मिला, लगा कि मुझको अमृत मिला ... वह पल, उनकी आवाज़ ... वह मेरे अतीत में ही नहीं, मेरे वर्तमान में हैं क्यूँकि मैं उनको बार-बार जी रहा हूँ ... कि जैसे अमृता जी कहीं गई नहीं, अभी भी पास हैं।

 

संस्मरण की सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार भाई योगराज जी।


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on January 15, 2014 at 1:07pm

अमृता जी के साथ आपका साक्षात्कार पढ़ना मेरे लिए बहुत ही रोमांचकारी रहा. इन नॉस्टेल्जिक क्षणो को साझा करने के लिए आपका हार्दिक आभार आ० विजय निकोर जी.

Comment by Priyanka singh on September 4, 2013 at 3:46pm

कोई शब्द नहीं मिल रहे कैसे और क्या कहूँ ........आँखे नम हो गयी है ...दिल से आपका आभार सर ....आपके इस संस्मरण ने मुझे लगा अमृता जी से मिलवा दिया आभार बहुत बहुत आभार ......

Comment by vijay nikore on January 25, 2013 at 1:23pm

आदरणीया सुमन जी,

अमृता प्रीतम जी से मिलने की सुखद अनुभूति सदैव पास रही है,

पर अब संस्मरण लिखने से वह और भी ताज़ी हो गई है... कि जैसे

उनसे अभी-अभी मिला हूँ।

आपने लिखा,"मेरा नमन आपकी हर पंक्तियों पर,,," ..

यह कहकर आपने मुझको जो मान दिया है, उसके लिए

मैं आपका आभारी हूँ। हार्दिक धन्यवाद, सुमन जी।

सादर और सस्नेह,

विजय निकोर

 

Comment by SUMAN MISHRA on January 25, 2013 at 12:05pm

श्री विजय सर....मैं अपने कमेंट में राजेश जी लिख गयी गलती से ,,,छमा करिएगा सादर,,,,

Comment by SUMAN MISHRA on January 25, 2013 at 12:01pm

बहुत मन से पढ़ा मैंने...सच में...कितनी खूबसूरत अनुभूति है आपकी और अमृता जी के मिलन की लेकिन अंत जो किसी का नहीं होता अपनी मन मर्जी का होता है,,बहुत ही दुखद....राजेश जी मेरा नमन आपकी हर पंक्तियों पर,,,

Comment by vijay nikore on January 24, 2013 at 3:28pm

आदरणीय राजेश कुमार जी:

अमृता जी साहित्य का आकाश भी थीं, और सूरज भी,

और अभी भी उनकी रचनाएँ

ह्मारे कवि-दिल को ज्योतित कर रही हैं।

सराहना के लिए अतिशय आभार।

विजय निकोर

Comment by राजेश 'मृदु' on January 24, 2013 at 3:16pm

आदरणीय यह हमारा सौभाग्‍य है कि आपने अपने संस्‍मरण बांटे । बहुत बार सूरज आसमान में नहीं होता लेकिन आकाश उसकी लाली को अपने में काफी समय तक समेटे रहता है और यह लाली न जाने कितने कवियों को लेखनी चलाने का न केवल निमंत्रण देती है बल्कि मजबूर भी करती है, आपका हार्दिक आभार, सादर

Comment by vijay nikore on January 24, 2013 at 2:21pm

आदरणीया राजेश कुमारी जी:

आपको  संस्मरण अच्छा लगा, यह मेरा सौभाग्य है।

सब भगवान लिखते हैं, मेरी तो केवल कलम है।

जी हाँ, अमृता जी की सादगी केवल पहनावे में नहीं,

यह उनके आचरण में बह रही थी, और शब्दों में

उतर रही थी।

सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार।

सादर और सस्नेह,

विजय निकोर

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