आवाहन
झूमते पत्तों में से छन कर आई मेरे आँगन में
हँसती-हँसती उदभासित किरणों की छाप,
नभ-स्पर्शी हवाएँ तरंगित
सुगंधित पूर्वाभास से स्पन्दित
होले से पास पुकारती रहीं मुझको,
मैं नींदों में मुसकुराती रही सारी रात,
मुझे लगा, सात समुन्दर पार से आज
पास मेरे तुम चले आए।
एक-के-बाद-एक जाने कैसे सारे किवाड़ खुले
दीवारें अक्समात निढाल गिरीं,
मेरा यह कब से सुनसान उजाड़ आँगन,
नई उजली किरणों को आमंत्रित करता,
कि जैसे यह रात नहीं थी, सूर्योदय था हुआ,
मेरा मन पुष्पित बाग-सा खुला
निखर उठा,
आज मुझको लगा
कई सदियों के बाद
इस घर में उजाला हुआ
आज ... मुझको लगा
दरियाई फ़ासलों को फांद
पास मेरे तुम लौट आए।
तुम्हारा आवाहन करती
कलकंठ चिड़ियाँ चहक उठीं,
और मैं भागी आसक्त, चौके में दरी बिछाने,
पूजा की थाली लाने,
तुम्हारी सूर्योपासना करने,
पर यह क्या ...
पूजा की थाली तो तुम्हारे हाथ में थी!
... अभी-अभी मेरा सपना टूटा
पर लगा कि तुम्हारे हाथ का लगाया
मेरे माथे पर वह दिव्य टीका
और मेरी मांग में सिंदूर,
हमारा सदियों पुराना वह स्नेहमय मेल,
अभी भी आविर्भूत हैं।
... चाहे सपने में ही सही,
तुम आए तो सही!
-----------
-- विजय निकोर
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
इस उत्कृष्ट भावाभिव्यक्ति के लिए आपको बहुत बहुत बधाई !
आदरणीया विनीता जी,
सराहना के लिए अतिशय धन्यवाद।
विजय निकोर
बहुत सुन्दर भाव्यभिव्यक्ति आदरणीय. बधाई स्वीकारें.
आदरणीय लक्ष्मण प्रसाद जी:
आपने बिलकुल ठीक कहा ... कई सपने बहुत ही भले लगते हैं ... विशेषकर यदि
यह किसी प्रिय सुधीजन के हों या भगवान के हों। कविता की सराहना के लिए
मैं आपका आभारी हूँ।
जय श्री राधे।
विजय निकोर
आदरणीय सौरभ जी:
आप जिस प्रकार रचनाओं का विश्लेषण कर के उन पर प्रतिक्रिया लिखते हैं,
उससे मन प्रसन्न हो जाता है। "आवाहन" कविता की सराहना के लिए आपका
शत-शत आभार। आशा है ऐसे ही मनोबल बनाए रखेंगे।
सादर,
विजय निकोर
आदरणीया उपासना जी:
सराहना के लिए आपका अभारी हूँ। धन्यवाद।
विजय निकोर
आदरणीय नादिर जी:
कविता की सराहना के लिए आपका अतिशय आभार।
विजय निकोर
चाहे सपने में ही सही,
तुम आए तो सही..........सुंदर अभिव्यक्ति
मानवीय उत्कटता को द्वैत में प्रस्तुत करने का एक सुन्दर प्रयास हुआ है, आदरणीय विजय निकोरजी. इसी सोच और शैली का एक आयाम गंग-जमुनी ज़मीन पर विकसित सुफ़ीवाद है, जिसके लहजे में आपकी प्रस्तुत रचना गाती हुई बढ़ती जाती है. सूर्योपासना, पूजा-थाल और सिन्दूर जैसे बिम्बों से प्रस्तुति को आवश्यक ऊँचाई मिली है. और, आखिरी पंक्तियों में क्या ही खूबसूरती से यथार्थ का ’हठात’ पाठकों के प्रवाह को झकझोरता हुआ सामने आ खड़ा होता है - ... चाहे सपने में ही सही, / तुम आए तो सही !
बधाई, इस प्रस्तुति पर आदरणीय.
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