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                           कट  गई  है  लहर

            जाने क्यूँ कुछ ऐसा-ऐसा लगता है

            कि  जैसे  कट  गई  लहर  नदी  से,

            वापस न लौट सकी है,

            और ज़िन्दगी इस कटी लहर में धीरे-धीरे

            तनहा  तिनके  की  तरह  बहती

            कुछ  कहती  चली  जा  रही  है ...

            " व्यर्थ है, सब व्यर्थ,

              जो भी बोया, जो भी पाया,

              व्यर्थ है सब ..."

 

             हर सोच में है तिरोहित आशंका

             हर साँस में है थिरती उसाँस निराशा की

             पूर्णिमा का चाँद भी थिरकता है कुछ ऐसे

             कि मानो धरती भी स्वयं में सिमटती-सी,

             अनासक्त,

             अपरिचित-सी  मुँह  फेर  लेती  है  उससे ।

 

             इस पर भी क्यूँ लौट आई हैं आज

             लावारिस आकांक्षायों में लिपटी

             वही  पुरानी  प्यासी  प्रत्याशाएँ ?

             इनको तो मैं कब से बहुत पुराने

             कटु अनुभवों के मलबे के ढेर के नीचे

             अतीत  की  गहरी

             लम्बी काली कुहरीली सुरंग की दरारों के बीच

             दबा-दबा  कर, ठूँस-ठाँस  कर  छोड़  आया था,

             उस सुरंग के सारे दरवाज़े भी मैं, सोचा तो था,

             हमेशा-हमेशा  के  लिए  बंद  कर  आया  था...

 

             ऐसे में कैसे  कोई आया,  कब आया,  क्यूँ आया  ?

             किसने आकर झटके से तोड़ दीं यह सांकलें सारी ?

             मुझको सहने दो, यहीं रहने दो,

             नदी से कटी इस लहर में अकेले तिनके-सा बहने दो,

             स्वयं से निसम्बन्ध अभी,

             "उस" कम्पनमय मार्मिक चोट से अवचेतन रहने दो ।

                                        ---------

                                                          विजय निकोर

                                                          vijay2@comcast.net

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Comment

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प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on January 15, 2014 at 1:03pm

क्या कहने है आ० विजय निकोर जी, बहुत ही सारगर्भित कविता रची है.  रचना और रचनाकार दोनों को नमन.

Comment by vijay nikore on January 25, 2013 at 2:10pm

आदरणीय अशोक जी:

कविता की सराहना के लिए धन्यवाद और आभार।

विजय  निकोर

Comment by Ashok Kumar Raktale on January 25, 2013 at 2:06pm

सुन्दर भाव प्रस्तुत करती रचना के लिए हार्दिक बधाई स्वीकारें आदरणीय विजय निकोर जी.सादर.

Comment by vijay nikore on January 10, 2013 at 7:08pm

आदरणीय प्रदीप जी,

कविता के भाव आपको अच्छे लगे, इस सराहना के लिए मैं आपका आभारी हूँ।

विजय निकोर

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on January 10, 2013 at 4:04pm

 ऐसे में कैसे  कोई आया,  कब आया,  क्यूँ आया  ?

             किसने आकर झटके से तोड़ दीं यह सांकलें सारी ?

             मुझको सहने दो, यहीं रहने दो,

             नदी से कटी इस लहर में अकेले तिनके-सा बहने दो,

             स्वयं से निसम्बन्ध अभी,

             "उस" कम्पनमय मार्मिक चोट से अवचेतन रहने दो ।

             आदरणीय विजय जी, 

सादर 

सुन्दर भाव की रचना 

बधाई. 

Comment by vijay nikore on January 10, 2013 at 2:30pm

आदरणीय गणेश जी,

इस कविता के लिए आपने उदार सराहना दे कर मुझको संबल दिया है,

और  "और भी"  अच्छा लिखने का प्रोत्साहन दिया है। आपका शत-शत धन्यवाद।

विजय निकोर 


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on January 10, 2013 at 2:15pm

बिम्ब और प्रतीकों के मध्य रचना एक नया आयाम बनाती हुई प्रतीत होती है, शब्द संयोजन और भावों का निरूपण रचना को एक अलग उचाई प्रदान करते हैं |

इस खुबसूरत अभिव्यक्ति पर बधाई स्वीकार करें आदरणीय विजय निकोरे साहब |

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