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गहन तमसा में खिली एक ज्योत्सना है

मधु गीति सं. १५०२ दि. ४ नवम्बर, २०१०

गहन तमसा में खिली एक ज्योत्सना है, ज्योति की वह क्षीण रेखा उन्मना है;
नहीं अपना नजर उसको कोई आता, जोड़ पाती ना प्रकाशों से है वो नाता.

प्रकाशों की नाभि से वह निकल आयी, स्रोत के उस केंद्र से ना जुड़ है पायी;
खोजती रहती वही निज स्रोत सत्ता, दीप लौ बन खोजती है बृहत सत्ता.
अंधेरों से भिड़ प्रकाशों को संजोये, वाती जब तब स्वयं भी है झुलस जाए;
घृत प्रचुर दीपक की वाती जब न पाये, उर दिये का भी कभी वाती जलाये.

बड़े सामंजस्य से है वाती स्वयं जलती, निशा की नीरव विवशता प्रचुर हरती;
दिखा मानव को दिये कुछ और देती, तपन अपनी दे दिये बहु जला देती.
रहे प्रज्वलित ज्योति यदि एक भी दिये की, प्रकाशित वह ज्योति रखती हर हिये की;
हर हिया दीपक अनेकों जलाता है, हर दिया 'मधु' हिये कितने तरजता है.

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Comment by Shrddha on November 17, 2010 at 5:46pm
Aapki kavita geet bahut achcha laga
Comment by GOPAL BAGHEL 'MADHU' on November 8, 2010 at 10:12am
प्रिय गणेश जी, नमस्कार !

व्याकरण की द्रष्टि से शायद जो आप इंगित कर रहे हैं वह उचित लगता है पर यहाँ पर भाव व तुक दोनों इन्हीं शब्द रूपों में उचित लग रहे हैं. फिर भी ऐसा कर के देख लेंगे. जो शब्द उचित भाव अभिव्यक्ति करें उन्हें बदला
जा सकता है.

मैं भी विशेष साहित्यिक व्यक्ति नहीं हूँ..हम दोनों मूलतः अभियंता हैं. यह भाव तो परम पुरुष ही दिए जा रहे हैं.
हम मात्र लिखे जा रहे हैं. कभी २ लगता है शब्द बदल कर हम ठीक नहीं कर रहे ..जो मूल शब्द अपने आप अन्तः करण से आ रहे हैं वे ही उनके कृपा प्रसाद हैं. फिर भी मैं पूरी तरह खुले हृदय से सदैव परिवर्तन के लिए प्रस्तुत रहता हूँ. बस, थोडा अंदर से अनुमोदन हो जाए तो अत्त्युत्तम. उनके व उनके भक्त जनों के इशारे भी एक ही हैं.

आप के साथ कल से अच्छा समय बीता..रविवार को छुट्टी थी तो रात्रि जागरण कर लिया. आज एक कवि सम्मलेन में भाग भी लिया यहाँ. अब तीन दिन प्रातः से कार्य पर जाना है. आप से बात आराम से शायद हमारी कल सुबह फोन से होगी. दिन में मैं आई-फोन पर ही रहूँगा ..

अब हम मिल गए हैं तो मिले ही रहेंगे. मैंने यांत्रिक अभियांत्रिकी १९७० में NIT/ REC दुर्गापुर, प. बंगाल से की है. प्रायः बिहार व पटना आना जाना रहा है. आध्यात्मिक कार्य क्रमों के लिए भी मैं प्रायः बिहार व बंगाल जाता रहा हूँ. पूरी बात फोन पर.

अन्य दोनों कविताओं को भी पसंद करने के लिए आपको साधुवाद. आध्यात्मिक कवितायेँ वैसी ही मानसाध्यात्मिक तरंग के 'मधु' सूजन ही पसंद कर पाते हैं और उनको साधुवाद भी कैसे दिया जा सकता है.
वे तो सुहृदय हो कर हमारे ही हृदय वासी हैं- दूर कहाँ रहते हैं.

अनन्य स्नेह, आदर व शुभ कामनाओं सहित

गोपाल

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on November 8, 2010 at 8:49am
आदरणीय गोपाल बघेल जी, सुंदर काव्य कृति है, बुराई पर अच्छाई की जीत की तरफ इशारा करती यह कविता सुंदर बन पड़ी है, एक बार ज़रा प्रकाशो और अंधेरों की जगह प्रकाश और अंधेरे को रखकर देखिये की कविता कैसी लगती है | एक बेहतरीन अभिव्यक्ति हेतु बधाई |

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