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`बहुत दिन हुए नहिं देखा दस का सिक्का...

स्कूल के दरवाज़े पर खड़े होकर शांताराम के चने नहीं खाए

बहुत दिन हुए आंगन के चूल्हे पर हाथ तापे..

याद नहीं आखरी बार कब डरे थे अँधेरे से...

कब झूले थे आखरी बार, पेड़ की डाली पर...

कब छोडा था चाँद का पीछा करना..

याद नहीं, कब कह दिया सुनहरी पन्नी वाली चॉकलेट को अलविदा..!!

कहाँ छुट गए कांच की चूडियों के टुकड़े..,

माचिस की डिबिया, चिकने पत्थरों की जागीर..

कब सुना था आखरी बार, स्कूल की घंटी का मीठा सुर...

बहुत दिन हुए नहीं खाई अम्मा की डाट...

...बसता पटक के भाग गया था खेलने...
नहीं लौटा है अब तक शाम ढलने को है...,!!!

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Comment by Sudhir Sharma on November 19, 2010 at 12:01am
धन्यवाद गणेश जी..

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on November 17, 2010 at 9:15am
वाह भाई सुधीर, आप तो फ्लश बैक मे पंहुचा दिया, यक़ीनन यह प्रयोग आप का सार्थक रहा | बहुत बढ़िया |
Comment by Sudhir Sharma on November 16, 2010 at 9:40pm
धन्यवाद नवीन जी...यादों पर डाका...
Comment by Sudhir Sharma on November 15, 2010 at 8:02am
शुक्रिया..

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Rana Pratap Singh on November 14, 2010 at 10:33pm
क्या बात है...वो दिन भी क्या दिन थे....
बहुत सुन्दर

कृपया ध्यान दे...

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