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Sudhir Sharma's Blog (9)

होली

 

 

   यूकेलिप्टस से बाएं को मुडके...

   सफ़ेद कुरते में निकला था दिन अकेला सा..

   जेब में रख गुलाल की पुडिया..

   गाल उसका छुआ था...हौले से...

   सजा दिए थे सभी रंग एक ही पल में... नीले,पीले, गुलाबी और हरे..

  और एक रंग गिर गया था वहीँ...

  घर के बारामदे की चौखट…
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Added by Sudhir Sharma on March 19, 2011 at 5:52pm — 3 Comments

लिफ़ाफ़ा

नाम नहीं कोई पता नहीं है....

कोई भी पहचान नहीं है....
जाने किस एक शख्स ने अपने,

सहमें सहमें जज्बातों को,
बंद लिफाफे में रखकर के,

मेरे नाम से लिख भेजा है....
काश के ऐसा कोई लिफाफा

आज से पंद्रह बरसों पहले,
तुमने मुझको भेजा होता...

Added by Sudhir Sharma on February 24, 2011 at 11:30pm — 1 Comment

ग्रीटिंग

याद है जब एक साल तुम्हारा ग्रीटिंग मुझे नहीं पहुंचा था...

ग्रीटिंग जिसके भीतर मैं तुमको पढता था...

जिसके एक-एक हर्फ़ से अफ़साने गढ़ता था

बहुत पुरानी बात है वो भी नया साल था.......

कई दिनों तक रक्खी थीं उम्मीद होल्ड पर...

...आज भी बीता बरस सिराने जाता…
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Added by Sudhir Sharma on January 1, 2011 at 2:15am — 5 Comments

रात..........

लिटाया तकिये पे हौले से थपकियाँ देकर .

और परियों की कहानी भी सुना डाली हैं...

उनींदी रात ये जगार की एक जिद सी लिए बैठी है...

चाँद आये तौ मैं कह दूंगा सुला दौ इसको...

तमाम ख्वाब मेरे खिडकियों पे बैठे हैं....…
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Added by Sudhir Sharma on December 10, 2010 at 11:19pm — 4 Comments

सर्दियाँ

सुबह से चढ़ रहा मुंडेर, गुनगुना सूरज,
शहर में कंपकपाती सर्दियों का फेरा है...

देखता हूँ वो कच्ची धुप में लिपा आँगन,
माँ ने नहलाके खड़ा कर दिया है फर्शी पे..

कान के पीछे लगाया है फ़िक्क्र का टीका....
और पहना दिया है पीला पुलोवर जिसमें..
बुनी है कितनी जागती रातें....

शहर में कंपकपाती सर्दियों का फेरा है,
सुबह से ढूंढ रहा हूँ वो गुनगुना सूरज

Added by Sudhir Sharma on November 29, 2010 at 4:25am — 3 Comments

दस का सिक्का...

`बहुत दिन हुए नहिं देखा दस का सिक्का...



स्कूल के दरवाज़े पर खड़े होकर शांताराम के चने नहीं खाए



बहुत दिन हुए आंगन के चूल्हे पर हाथ तापे..



याद नहीं आखरी बार कब डरे थे अँधेरे से...



कब झूले थे आखरी बार, पेड़ की डाली पर...



कब छोडा था चाँद का पीछा करना..



याद नहीं, कब कह दिया सुनहरी पन्नी वाली चॉकलेट को अलविदा..!!



कहाँ छुट गए कांच की चूडियों के टुकड़े..,



माचिस की डिबिया, चिकने पत्थरों की जागीर..



कब सुना… Continue

Added by Sudhir Sharma on November 14, 2010 at 2:57pm — 5 Comments

वक़्त.

पांच छत्तीस थे...घडी में जब...

शाम की धूप वेंटिलेटर से सरकी थी,

दूर तक साये चले आये थे... बीते मौसम को छोड़ने के लिए....

दर्द बहने लगा था पलकों से,

तुमने आँखों से उतारी थी...आंसुओं की नज़र..

ठंडी काफी में घुल गए थे जाने कितने पहर,

पांच छत्तीस हैं घडी में अब,

शाम की धूप वेंटिलेटर से सरकी है,

वक़्त गुज़रा है मगर,अब तलक नहीं बीता

Added by Sudhir Sharma on November 2, 2010 at 9:03am — 3 Comments

सर्दियाँ

आओ आ जाओ किसी रोज़ मेरे आँगन में...
अपने चेहरे के उजालों की तीलियाँ लेकर
लौट आयीं हैं यहाँ सर्द हवाएं फिर से

आओ आ जाओ किसी रोज़ मेरे आँगन में...
धूप सुलगा के बैठ जाएँ हम..
ताप लें रूह में जमी यादें
सुखा लें आंसुओं की सीलन को..

आओ आ जाओ किसी रोज़ मेरे आँगन में...
धूप सुलगा के बैठ जाएँ हम..
एक रिश्ते की आंच से शायद...
कोई नाराज़ दिन पिघल जाये...

Added by Sudhir Sharma on October 29, 2010 at 11:30pm — 6 Comments

निर्जला....

पूरा दिन यूँ ही गुज़ारा था निर्जला तुमने

हंसके डिब्बे में रखी थी परमल... फेवरेट थी मेरी...

मैंने ऑफिस में उड़ाई थी पराठों के संग

तुमने एक दिन में ही जन्मों का सूखा काटा था...

औंधी दोपहरी कहीं टांग दी थी खूँटी से...

और फिर रात को पीले मकान की छत पर...

चाँद दो घंटे लेट था शायद...

चांदनी छानकर पिलाई थी...

पूरा दिन,यूँ ही गुज़ारा था निर्जला तुमने

आज भी रक्खा है...वो दिन मेरे सिरहाने कहीं...

Added by Sudhir Sharma on October 28, 2010 at 9:22pm — 5 Comments

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"आ. भाई अमीरुद्दीन जी, सादर अभिवादन। गजल की प्रशंसा के लिए आभार।"
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