खरीफ की फसल को तैयार कर अनाज को सहेजते और ठिकाने लगाते लगाते रब्बी की फसल भी तैयार होने लगती है. मसूर, चना, खेसारी, और मटर आदि के साथ सरसों, राई, तीसी आदि भी पकने लगते हैं, जिन्हें खेतों से काट कर खलिहान में लाया जाता है. इन सबके दानो/फलों को इनके डंटलों से अलग करने से पहले इन सबको पहले ठीक से सजाकर रखा जाता है, ताकि खलिहान के जगह का समुचित उपयोग हो. आम बोल-चाल की भाषा में इनके ढेर को गांज कहा जाता है. गांज यानी पकी फसल को डंटल सहित इस तरह गुंथ कर रखना ताकि ये अंधड़ में उड़ न जाय तथा वर्षा का असर भी इनपर कम से कम हो! फिर समयानुसार इन्हें सुखाकर दानों को अलग किया जाता है. दानों को अलग करने की प्रक्रिया को दौनी कहते हैं. यह दौनी पहले बैलो के द्वारा कराई जाती थी. आजकल थ्रेसर आदि वैज्ञानिक उपकरण आ गए हैं, जिनसे कम समय में ज्यादा से ज्यादा अनाज और उनके डंटल की भूसी को अलग अलग किया जा सकता है!
गाँव के बाहर परन्तु नजदीक में ही ये खलिहान बनाये जाते है, ताकि इनकी देखभाल भी आसानी से की जा सके. तबतक ठंढा भी कम हो जाता है और अधिकत्तर किसान खलिहानों में ही अपना ज्यादा से ज्यादा समय बिताते है ... रात में भी वे लोग वही सो लेते हैं. कभी कभी मनोरंजन के लिए फाग-चैता आदि का भी आयोजन कर लिया जाता है, जिनमे सभी लोग तन-मन-धन से अपना-अपना सहयोग देते हैं.
भुवन और चंदर खुद तो नहीं गाते हैं, पर सबके साथ बैठते हैं और सुर में सुर मिलाने की कोशिश करते हैं. बसंत पंचमी के बाद से ही फगुए की शुरुआत मान ली जाती है और बीच बीच में ढोलक झाल के साथ फाग का आयोजन गांवों में होता ही रहता है.
ऐसे ही एक दिन फाग का आयोजन चल रहा था, सभी लोग खूब आनंद ले रहे थे. बीच बीच में गांजा खैनी, बीड़ी, आदि तो चलना ही चाहिए. अगर संभव हुआ तो भांग भी आम बात है. हालाँकि ये दोनों भाई किसी भी नशा का सेवन नहीं करते, पर किसी को रोक भी तो नहीं सकते है न!
फाग में ज्यादातर पारंपरिक लोक गीत होते हैं जिनमे आराध्य देव की चर्चा तो होती ही है, भगवान शंकर, भगवान राम, कृष्ण आदि की भक्ति से सम्बंधित फाग गाये जाते हैं. जैसे – “गंगा, सुरसरी जाके नाम लिए तरी जाय” !, “बुढवा भोले नाथ, बुढवा भोलेनाथ बेसुध हो होरी खेले! ...” “सरयू तट राम खेले होली सरयू तट ... “ “होली खेले रघुबीरा, अवध में होली खेले रघुबीरा ....” कुछ सौंदर्य रस भी भरा जाता है – जैसे – “नकबेसर कागा ले भागा .... सैंया अभागा न जागा .....
आज कल तो फ़िल्मी गाने भी चलने लगे हैं – जैसे – “रंग बरसे भींगे चुनरवाली रंग बरसे ...
लौंग इलायची का बीरा लगाया ..... खाए गोरी का यार .... सजन तरसे रंग बरसे
बस ‘गोरी’ का नाम लोगों ने कई बार लिया और कुछ इशारे भी 'भुवन' की तरफ कर डाले ... फिर क्या था. भुवन-चंदर क्या चुपचाप सुनते रहते ??? एक बाल्टी पानी डाल दी, पूरे समुदाय पर. ठंढा तो था ही और लोग ठन्डे तो हुए, पर कुछ लोग गरम भी हो गए. .... मजा किरकिरा हो गया ....
थोड़ी नोक झोंक हुई और मामला रफा दफा हो गया.
हर जगह अच्छे-बुरे लोग होते हैं. बिफन और बुधना आवारा और शोख किशम के नौजवान थे. वैसे और भी ऐसे लोग थे, जो भुवन-चंदर की तरक्की से जलते थे. दूसरे दिन इन लोगों ने आपस में राय मशविरा किया, शाम को ताड़ी पी और उल जुलूल हरकत भी करने लगे. रात को जब सब सो गए तो इन दोनों ने बीड़ी सुलगाई. बीड़ी पी और जलती हुई माचिस की तीली को पुआल पर फेंका, पुआल थोड़ा सुलगा और तब उन लोगों ने उसे उठाकर भुवन के गांज के नीचे रख दिया और भाग खड़े हुए. थोड़ी ही देर में गांज में आग लग गयी और उसने भीषण रूप अख्तियार कर लिया! गर्मी का अहसास होने से भुवन की नींद खुल गयी और उसने चिल्लाना शुरू किया ... “आग! आग! आग लग गयी हो!” आस पास के लोग भी उठे दौड़े और कुंए से पानी भर-भर कर आग बुझाने का भरपूर प्रयास किया गया. आग तो बुझ गयी पर भुवन के गांज का काफी हिस्सा जल गया! यह मसूर का गांज था ... काफी नुक्सान हुआ. गौरी तो देख रोने लगी और आग लगाने वाले को भरपूर गालियाँ भी देने लगी. कुछ लोगो ने ढाढस बंधाए. पर जो आग भुवन के सीने में लगी थी, उसे कौन बुझा सकता था....
गाँव में बहुत सी बातें छिपती नहीं, तुरंत भेद खुल जाता है. कुछ लोगों ने बिफन और बुधना को शाम के समय ताड़ी पीते और बक बक करते सुना था. आग बुझाने के समय भी लगभग सारा गांव इकठ्ठा हो गया था, पर वे दोनों नहीं दिखे थे. उनसे जब पूछा गया तो कहा – “ताड़ी पीकर सो गए थे .. नींद ही नहीं खुली!”
जब पक्का बिस्वास गया, तो भुवन और चंदर ने मिलकर उन दोनों को खूब पीटा. वे लोग कान पकड़ कसम खाने लगे – “अब ऐसा नहीं करेंगे, भैया!” फिर उन्हें छोड़ दिया गया!
फिर इन्हें लोगों ने आम घटना मान कर भुला दिया. सभी अपने अपने काम में ब्यस्त हो गए.
(मौलिक व अप्रकाशित)
क्रमश: )
Comment
आदरणीय श्री योगी जी, सादर अभिवादन!
मैंने भी गाँव की होली का आनंद उठाया है ... यह घटना भी कहानी का हिस्सा है ... आपकी प्रभ्वी प्रतिक्रिया का आभार!
फाग में ज्यादातर पारंपरिक लोक गीत होते हैं जिनमे आराध्य देव की चर्चा तो होती ही है, भगवान शंकर, भगवान राम, कृष्ण आदि की भक्ति से सम्बंधित फाग गाये जाते हैं. जैसे – “गंगा, सुरसरी जाके नाम लिए तरी जाय” !, “बुढवा भोले नाथ, बुढवा भोलेनाथ… बैकट(बैकटपुर-शिव जी का स्थानीय मंदिर जो पटना के बख्तियारपुर में है) में होरी खेले! …” “सरयू तट राम खेले होली, सरयू तट … “ “होली खेले रघुबीरा, अवध में होली खेले रघुबीरा ….” कुछ सौंदर्य रस भी भरा जाता है – जैसे – “नकबेसर कागा ले भागा …. सैंया अभागा न जागा …..
आज कल तो फ़िल्मी गाने भी चलने लगे हैं – जैसे – “रंग बरसे भींगे चुनरवाली रंग बरसे …
लौंग इलायची का बीरा लगाया ….. खाए गोरी का यार …. सजन तरसे रंग बरसे …
आपने हमें अपने गाँव की होली के दिन याद दिला दिए आदरणीय श्री जवाहर सिंह जी ! बहुत बढ़िया सामाजिक लेखन !
आदरणीया मंजरी जी, सादर अभिवादन!
आपका बहुत बहुत आभार! जल्द ही कहानी की अगली किश्त भाग-४ पेश की जायेगी!
जवाहर प्रसाद जी बहुत बहुत बधाई। वैसे आतंकी ऐसा ही तो करते हैं।
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