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हमने जो घर-घर में देखा,
उन बातों का यही निचोड़
जीवन है इक बाधा दौड़.

चाहे कितनी करो कमाई,
सब कुछ खा जाती मंहगाई.
दस-पंद्रह दिन में चुक जाती.
एक मॉस की पाई -पाई.
ओवर-इनकम नहीं जो घर में,
इक-दूजे का माथा फोड़.
जीवन है इक बाधा दौड़.

मस्त रहें बच्चे ,धमाल में,
घर के बूढ़े अस्पताल में
घर का करता फिरकी जैसा
नाचे सबकी देख -भाल में
घर-घर बहूएँ कोंस रहीं हैं
बुढ़िया अब तो माचा छोड़
जीवन है इक बाधा दौड़

अब घर अब कोई न आता
टूट रहा हर रिश्ता-नाता
बे-ईमान पडोसी के घर
लगा हुआ लोगों का ताँता
घरवाली समझाती रहती
सच्चाई का दामन छोड़
जीवन है इक बाधा दौड़.

छोटी चादर लम्बे पाँव
घर में मचा रहे कुक्रांव
कभी क्रोध से कभी अश्क से
घर के प्राणी चलते दांव
कभ-कभी तो हम भी सोते
बेशर्मी की चादर ओढ़
जीवन है इक बाधा दौड़.

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Comment

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Comment by anand pandey tanha on November 29, 2010 at 10:24am
भाई नवीन जी,
अपनी मूल विधा से हट कर लिखते समय दुविधा में था,गीत स्तरीय होगा या नहीं ? आपकी टिप्पड़ी से बल मिला .साभार, तनहा

कृपया ध्यान दे...

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