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तब होके रहेगा गोल...!

तब होके रहेगा गोल...!
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पूछा मैंने नन्ही शहरी चिड़िया से
तपती धरती पर तुम क्यों
इस तरह उतर आई .....!
आकाश की ओ स्वछन्द परी,
स्वार्थी इंसानों की दुनिया में
नाहक ही मरने को आयी?
बोली बेचारी मायूस होकर
जहाँ जहाँ था हमारा बसेरा
वहां वहां कट गये वृक्ष के आशियाने
तन गए इंसानों के गगनचुम्बी महल
ये देख हमारी बिरादरी के दिल गए दहल.
अब न मिलती छाँव है
न हवा, न मिलता कहीं जल है.
मैं सोच रही अपने छोटे दिमाग से
इंसानी जाति को कैसा लगा जंग है!
कैसे सुनहरा होगा
हमारा और तुम्हारा आने वाला कल!
जब सीमेंट कांक्रीट के जंगल का
इंसान भी नहीं चाहता कोई हल..!
पर्यावरण खतरे में पड़ चुका है,
मानव जाति संकट में है,
चारों और विनाश का डंका
बज चुका है.
अब प्रकृति न रही अनमोल
धरती का बिगड़ा ऐसा भूगोल
हम जैसों का भी नहीं रहा मोल.
मनुष्य जाति को सम्हलना होगा,
सोते रहे, तो दंड भुगतना होगा
अन्यथा होगा हर जीवन में घनघोर अँधेरा
न गूंजेंगी किलकारी कोई,
न सुनाई देंगे इंसानी बोल
विनाश के जीत का
सीधा सीधा हो जायेगा गोल..
-दिनेश सोलंकी
अप्रकाशित और स्वरचित रचना प्रकाशनार्थ प्रेषित [ छाया: दिनेश सोलंकी ]

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Comment

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Comment by POOJA AGARWAL on May 30, 2013 at 3:02pm

nice poem..

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