प्रिय मित्रों,
हिंदी में आम पाठकों के लिए क्लिष्ट भाषा का उपयोग नहीं होना चाहिए, ऐसा मेरा मानना है. हिंदी निश्चित ही अपार शब्दों का समंदर है जिसमे सरल से लेकर कठिन, उच्च और बौद्धिक शब्दों की भरमार है. साहित्यकारों, हिंदी प्रेमियों, हिंदी विषय के ज्ञाताओं और हिंदी का ज्ञानार्जन करने वालों के सन्मुख क्लिष्ट भाषा का उपयोग समझ आता है मगर जब आम पाठकों, श्रोताओं, दर्शकों की बात सामने आती है तब कवि को, लेखक को, नेता को, साहित्यकार को, मीडिया को या कोई भी रचनाकार को आम जनता की मनोस्थिति, उसके बौद्धिक स्तर का भी बोध करना ज़रूरी है. अन्यथा उसकी रचना, समाचार, आचार-विचार कितने ही महत्वपूर्ण क्यों न हो, उसका असर एक बौद्धिक समूह के अलावा किसी और पर नहीं पड़ेगा. इससे उन लोगों को भी निराशा होती है जो सुनने-पढने की चाह रखते हैं. हमारे देश में पहले ही हिंदी की दुर्दशा कम नहीं है, कठिन भाषा के उपयोग से आम आदमी दूर होता जाता है. क्षमा याचना सहित
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आदरणीय दिनेश सोलंकी साहब सादर,यह कहना एकदम उचित नहीं है की भाषा के कुछ शब्दों को, जिन्हें आप क्लिष्ट कह रहे हैं, निकाल बाहर किया जाए.भाषा के सभी शब्दों का उपयोग रचनाओं में होना चाहिए.हाँ सुविधा के लिए शब्दार्थ लिखे जाने की जरूरत को मैं भी महसूस करता हूँ,हम साहित्यिक रचनाओं के पतन को मात्र इस लिए स्वीकार नहीं कर सकते की उसके कुछ शब्द सभी लोगों को ठीक से समझ नहीं आ रहे. रूचि रखने वाले पाठक और श्रोता उसका अर्थ ढूंढ ही लेते हैं.यह हिंदी फिल्मो के कई गीतों के उपयोग हुए शब्दों से हम आसानी से समझ सकते हैं. मगर यहाँ मैं आदरणीय डॉ. वाजपेयी साहब के इस कथन से भी संतुष्ट नहीं हूँ की रचनाओं का शिल्प मात्र क्लिष्ट शब्दों से ही साधता है.अर्थात बोलचाल की भाषा से रचना का शिल्प साधने वाले को हम नाकाबिल कहें यह मुझे तो उचित नहीं लगा. सादर.
धन्यवाद ब्रजेशजी, आपको याद होगा पहले क्लास 1st के लिए हिंदी वर्णमाला पुस्तक चला करती थी. आज इस पुस्तक का स्थान अंग्रेजी वर्णमाला ने ले लिया. हर वर्ग का व्यक्ति अपने बच्चे को इंग्लिश सिखाने के लिए इस क़दर पगला रहा है की बच्चे हिंदी में गिनती लिखना बोलना तक भूल गए. इसलिए हिंदी को बचाने के लिए ज़रूरी हैं की उसका सरलतम उपयोग होता बढ़े ताकि हर व्यक्ति आसानी से समझ सके.
आपने जो विचार प्रस्तुत किया है वह निश्चित ही विचारणीय है। हिन्दी को उसका मान दिलाना हम सबका दायित्व है। साहित्य में सरल भाषा को प्रयोग करने का प्रयास करना चाहिए।
मैं एक बात कहना चाहूंगा कि हमें उस मानसिकता से लड़ने की जरूरत है जिसने हिन्दी को दोयम दर्जे पर धकेल दिया है। हम सब के घरों में अंग्रेजी शब्दकोष मिल जाता है लेकिन कितने हैं जिनके घर में हिन्दी शब्दकोष है? कोई भी भाषा तब तक सम्मान नहीं पा सकती जब तक कि उसको बोलने वाले उसे बोलते हुए गौरवान्वित न महसूस करें। कितने ही हिन्दी साहित्यकार आपको अंग्रेजी में भाषण देते हुए मिल जाएंगे। हिन्दी साहित्यिक आयोजनों में मैंने बैनर और पोस्टर तक अंग्रेजी में देखे हैं। अब घर घर में मैडोना और लेडी गागा को सुना जाने लगा है। कितने हैं जो लोकगीत सुनते हैं? अंग्रेजी स्टेटस सिंबल है। हिन्दी पिछड़े होने की निशानी। यह आम लोगों की भी मानसिकता है। इससे जूझने की जरूरत है।
thanx kishanji main dhany hua.
डॉ आशुतोष जी इसमें क्षमा की कोई बात नहीं. ये तो विचारों का आदान प्रदान है. आप भी अपनी जगह सही हो सकते हैं. धन्यवाद प्रतिक्रिया के लिए
दिनेश जी आपकी बात में बहुत दम है किन्तु अनेक बार शैल्पिक व्यवस्था के बन्धन क्लिष्ट शब्दों के प्रयोग को विवश कर देते हैं.......और जो शिल्प का ध्यान नहीं रखते वे आपके वचन के अनुसार नियमित रूप से हिन्दी साहित्य और काव्य की दुर्दशा करने में संलग्न तो हैं ही......वे ही आपकी अपेक्षाओं पर खरे उतर सकते हैं........क्षमा प्रार्थी हूँ
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