धर्म-मजहब के नाम पर,
तुम लड़ सकते हो, मैं नहीं
अपने शब्दों की नुमाइश बेहतर,
तुम कर सकते हो, मैं नहीं
.
मैं.............. मैं क्या कर सकता हूँ ???
मैं तो बस....
.
मैं तो आज भी ले सकता हूँ
बारिश का मज़ा
गलतियाँ कर पा सकता हूँ सजा
कल्पनाओ से निखार सकता हूँ धरा
बात दिल की कहता हूँ सदा.......
.
रो कर मना सकता हूँ उन्हें
रूठ के सता सकता हूँ उन्हें
नादानियो से हँसा सकता हूँ उन्हें
क्या तुम कर सकते हो ?
.
कदाचित नहीं
क्योंकि परिपक्वता तुम्हारा बन्धन है
और नादानीयाँ मेरी आज़ाद उड़ान .....
मौलिक एवं अप्रकाशित
- सुमित नैथानी
Comment
vandana tiwari ji sukriya .....
पांडे जी शुक्रिया ...अपना कीमती वक़्त देने के लिए
बृजेश जी शुक्रिया ...जी बिल्कुल ध्यान दूँगा
BAHUT SUNDAR RACHNA JO BAAT DIL KO LAGE VO EK RACHNA HAI HO SAKTA HAI VYAKRAN MAI KAMI HO PAR YE SABHI KA SUDHAR HI JATA HAI DHERE DHERE.
AABHAR SWEKAR KARE
YATINDRA
आदरणीय सुमित जी मैं ही नहीं ओबीओ का प्रत्येक सदस्य आपकी कमियां इंगित करेगा। उन्हें समझना और तदनुरूप अपने लेखन में सुधार करना आपका दायित्व है। फिलहाल इस रचना के लिए आदरणीया राजेश कुमारी जी के इंगितों का संज्ञान लें।
सादर!
राजेश जी ...जब तक नेगेटिव नही होगा, तब तक पॉज़िटिव तो आ ही नही सकता..... अपना कीमती समय देने के लिए धन्यवाद ....
जवाहर जी शुक्रिया अपना कीमती वक़्त देने के लिए
बृजेश जी शुक्रिया ..आशा करता हूँ कमी दिखती ही आप मेरा ध्यान उस तरफ ले जाएँगे
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