मधु गीति
कारीगरी करतार की
कारीगरी करतार की देखे चली हर जिन्दगी;
जिन्दादिली हर जीव की दरियादिली हर गत्य की।
था गहन तम हर गहनतम, था सूक्ष्म भी हर क्षुद्र मन;
थी क्षुद्रता हर सूक्ष्म मन, मन भीरुता हर बृहत मन।
पांडित्य हर उर था छिपा,देवत्व ना विकसित हुआ;
दानव कहाँ था मिट चुका, ईशत्व ना उन्मुख हुआ।
अद्भुत गति तत्पर सभी, ना नियंत्रित निज आत्म गति;
मन नाचता तन डोलता,वाणी विकृत बुद्धि विरत।
ना नियन्ता में रति रही, ना साधना संयत रही;
;मधु; चेतना चेष्टित रही, लौ में लगी उद्यत रही।
रचयिता: गोपाल बघेल 'मधु'
टोरंटो, ओंटारियो, कनाडा
मौलिक व प्रकाशित
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