अग्नि-परीक्षा
मृत्यु के दानव-से क्रूर-कर्म तक
वक्त और बेवक्त तुम्हें
मेरी अग्नि-परीक्षा करनी थी न?
लो कर लो, देख लो मुझको
जी रही हूँ मैं कब से केवल एक नहीं
तुम्हारी जलाई असंख्य अग्निओं में
जो अभी तक मन में तुम्हारे बुझी नहीं।
अग्नि .... नुकीली धारदार शंका की,
हृदय में तुम्हारे सदैव सुलगते
मेरे प्रति ज्वरित अविश्वास की,
धधकती भयानक इर्ष्या की,
तुम्हारे झूठे अस्थाई पुरूषत्व की,
और .. और न जाने कौन-कौन-सी
अग्नियाँ जो भभकती रही हैं तुम्हारे
अंत:स्थ तिमिर के तले
जिनका तुम्हें स्वयं भी ज्ञान नहीं,
जिनकी अग्निमान लपटों से तुम
मुझको खाक करने को,
हमारे इस रिश्ते को ऐसे
आज फूंकने को भी तैयार हो।
यह अनगिनत अग्नियाँ
तो तुम्हारे अंदर रहीं,
पर पल-पल ताप को उनके
मैं अपने "अकेलों" में जीती रही,
और आज मैं गर्व से कह सकती हूँ,
कि हर बार कितने गलत थे तुम,
तुम्हारी कोई भी अग्नि मुझको
भसम न कर सकी।
हाँ, स्तब्ध हूँ मैं कि
तुम्हारी हर अग्नि-परीक्षा में पूरी उतर कर
मैं ही अब तुमको पूर्णत्या पहचान सकी,
कि जैसे कोई फटी हुई पुरानी किताब मैंने
आख़िर अब शूरू से अंत तक पढ़ ली।
-------
-- विजय निकोर
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय योगराज भाई,
//इस कविता में भी नारी मन के दर्द और द्वंद्व की गहराई तक जाने का प्रयास हुआ है. ऐसी रचनाएं लेखनी को एक ही ऊंचाई प्रदान करती हैं//
रचना में निहित भावों के अनुमोदन हेतु आपका हार्दिक आभार, आदरणीय।
सादर,
विजय निकोर
इस कविता में भी नारी मन के दर्द और द्वंद्व की गहराई तक जाने का प्रयास हुआ है. ऐसी रचनाएं लेखनी को एक ही ऊंचाई प्रदान करती हैं, हार्दिक बधाई प्रेषित है.
मित्रो,
किसी एक सुधी-पाठक ने इस कविता के बारे में निम्न कहा है/पूछा है...
// "आदरणीय विजय जी,
नारी के दम-ख़म , साहस, जीवट की झलक दिखाती हुई , यह 'नारीवादी ' रचना बहुत सुन्दर बन बड़ी है ! किसी विशेष ऐतिहासिक नारी चरित्र को सोच कर लिखी है क्या या सामान्य रूप से 'नारी' की तस्वीर प्रस्तुत की है ? सामान्य रूप वाली ही प्रस्तुति लगती है ! हर पंक्ति आत्मविश्वास, अदम्य हिम्मत और पुरुष के प्रति ललकार से भरी हुई है ! "//
मेरा उत्तर कुछ इस प्रकार है ...कविता में निहित भावों के अनुमोदन के लिए हार्दिक आभार।
आपने स्वयं अपने प्रष्न का उत्तर ठीक ही सोचा है ... यह रचना सामान्य रूप से 'नारी' की तस्वीर प्रस्तुत करती है।
हमारे समाज में अभी तक पुरुष का नारी के ऊपर कभी शारीरिक, कभी मानसिक प्रहार, स्वयं कई स्वतंत्रताएँ लेकर नारी को वही स्वतंत्रता न देना, नारी का subservient रहना ... यह अभी भी हमारे समाज में प्रचलित है। कुछ ऐसे ही इस विषय पर मैंने पहले भी एक कविता " नारी का मन" लिखी थी"।
नारी को अपना उचित स्थान देने के लिए हम सभी को शीघ्र जाग्रत होना होगा, ताकि हम अपने आसपास के undesired elements को इस संदर्भ में सुधार सकें, नारी को समाज में उसका उचित मान और स्थान दे सकें।
सादर,
विजय निकोर
आदरणीय श्याम जी:
इस रचना को "like" करने के लिए आपका धन्यवाद।
सादर,
विजय
आदरणीया सावित्री जी:
// मैंने जब भी आपको पढ़ा है,हर बार पहले से विशिष्ट रूप में पढ़ा है .....हर बार आपकी रचना ने मन को गहराई से छुआ है //
मुझको इतना मान और स्नेह देने के लिए मैं आपका आभारी हूँ।
आपके उत्साहवर्धन से उक्त रचना सार्थकता को प्राप्त हुई,
हार्दिक धन्यवाद, आदरणीया।
सादर,
विजय निकोर
आदरणीय विजय जी,
सादर प्रणाम !
मैंने जब भी आपको पढ़ा है,हर बार पहले से विशिष्ट रूप में पढ़ा है .....हर बार आपकी रचना ने मन को गहराई से छुआ है।मैं विस्मित हूँ कि कैसे आप नारी-मन की व्यथा को,उसके अन्तर्द्वन्द को शब्दों में ढाल देते हो .......जबकि मैं स्वयं एक नारी होकर भी ऐसा करने में, स्वयं को असहाय पाती हूँ।आपकी इस विशेषता को कोटि-कोटि नमन।
इतनी सुन्दर रचना हेतु बधाई !
आदरणीया मीना जी:
//नमन ......इस रचना के लिए हार्दिक बधाई स्वीकारें //
नमस्कार। आपका अतिशय धन्यवाद, मीना जी।
सादर,
विजय निकोर
आदरणीय डा० मिश्रा जी:
//सोचने के लिए विवश करती है यह कविता ...//
कविता की सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार।
सादर,
विजय निकोर
आदरणीय सौरभ भाई:
भावाभिव्यक्ति में मैं शाब्दिकता में बह गया। आपके सुझाव और मार्ग-दर्शन के लिए आभारी हूँ।
मेरे रचना-सामर्थ्य के अनुमोदन के लिए हार्दिक धन्यवाद, सौरभ जी।
सादर,
विजय निकोर
आदरणीय बृजेश भाई:
// नारी मनोभावों को सहजता से उकेरती इस सुंदर रचना के लिए ...... //
सराहना के लिए मैं आपका आभारी हूँ।
सादर,
विजय निकोर
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