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कविता :- अखिल विश्व और हम

ठूंठ वृक्ष
सूखे सब पत्ते
कोटर भी पक्षी विहीन
हम कितने एकल |

छोड़ गए सब साथ
हाथ और राह भी छूटी
मील के पत्थर भी उदास
और बेकल बेकल |

संधि काल या महाकाल
क्यों स्याह घनेरा
तुम नित प्यासे
आस भरे आते जाते पल |

दूब पांव की
कोमलता की याद दिलाती
पीछे छूटे गांव छांव सब झुरमुट वाले
हम फिर चलते जैसे चलते आज और कल |

तेरी दुआएं कामनाएं
जहां भी जाये साथ निभाएँ
माँ तुम बिलकुल माँ जैसी हो
तेरा आँचल देता है बल |

भीड़ भरे ये यन्त्र तंत्र पर
बंजर अखिल विश्व यह कितना
संजालों का जाल अखिल ब्रह्माण्ड
मगर कर लेता है छल |

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Comment by Abhinav Arun on December 8, 2010 at 3:49pm
लता जी बहुत बहुत धन्यवाद !
Comment by Lata R.Ojha on December 7, 2010 at 9:14am
भीड़ भरे ये यन्त्र तंत्र पर
बंजर अखिल विश्व यह कितना
संजालों का जाल अखिल ब्रह्माण्ड
मगर कर लेता है छल |

bahut sateek aur gahri baat ..waah !

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