ग़ज़ल एक कोशिश
ख्वाब दिखाकर दिलबर गायब है
रातो का वो मंज़र गायब है।।
जिसमे डूबी चाहत की किस्ती।
यारो एक समन्दर गायब है।।
खटकाता किसकी कुंडी मैं अब।
देखा जब उसका घर गायब है।।
पेट भरे वो सबका फिर भी उस।
दाता का ही लंगर गायब है।।
कापा जिस्म मिरा रातो में तब।
देखा उठ कर चादर गायब है।।
करके एक दुवा देखी मैंने।
भगवान तिरा मंदर गायब है।।
कर देता घायल मन को मेरे।
वार किया वो खंज़र गायब है।।
"केतन " ढुंढ़े उसको जग सारा।
बाहर मैं, वो अन्दर गायब है।।
$$@@अनजान केतन@@$$
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
Sukriyaa Sir ji
ओपन बुक्स ओंन लाइन एक ऐसा मंच मिला है जहाँ वाकई में हम सब को सीखने का मौका मिल रहा है ..आदरनीय सौरभ जी, बागी जी और वीनस जी सभी का सहयोग और मार्गदर्शनहम सबको सतत मिल रहा है .किसी की उजागर की गयी कमियां रचनाकार के साथ पाठकों के लिए भी बेहद उपयोगी हैं ...........आपका प्रयास काबिले तारीफ़ है ..हार्दिक बधाई के साथ ..
Uprokt ghazal ka matra bhar hai 22 22 22 22 2
Bilkul sir ji sukriya
केतन भाई जी प्रयास हेतु हार्दिक बधाई स्वीकारें और श्री सौरभ सर जी कहे पर सज्ञान करें.
इस प्रयास के लिए शुभकामनाएँ.
हिन्दी शब्दों की अक्षरियों में अन्यथा परिवर्तन उचित नहीं. जहाँ मात्राएँ गिरानी होगी पाठक तदनुरूप गिरा कर मिसरे को समझ लेंगे.
आपने नौ ग़ाफ़ के मिसरों का अपनी प्रस्तुत ग़ज़ल में प्रयोग किया है लेकिन उचित होगा कि आप ग़ज़ल को अपलोड करने के साथ उसके मिसरों का वज़्न भी स्पष्ट कर दिया करें.
सधन्यवाद
गॉदान, प्रेमचन्द जी की रचना है उससे प्रेरित हो कर कहने की कोशिश की है
आशा है सभी मित्रो गुरुजानो को पसंद आएगी।
आपके आशीर्वाद का इंतज़ार होगा
Saadar sweekare aur bhi kuch sujhav denge toh khushi hogi sir ji taki aur nikhar aa sake
बहुत खूब केतन साहब मंजरकशी में आप सफल रहे ...
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