मेरा है तू दास रे जोगी
तेरे क्या है पास रे जोगी।
मौत हुई मेरी यहाँ पर क्यों
गहरा है ये राज़ रे जोगी।
शाम हुई मदहोश आज यहाँ
जैसे हो कुछ खास रे जोगी।
रहती है मेरी नज़र में तू
आँखों की इक प्यास रे जोगी।
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
डॉ ललित जी आपने गज़ल की गलत तक्तीअ कर दी है
सही तक्तीअ यूँ हैं -
२२ २२ २२ २२
sAADAR SIR JI SUKRIYAA
मान्य बहर नहीं है फिर तख्ती’अ करके समरूप किया जा सकता है.
कोई बुराई नहीं है, केतन जी. लेकिन शुरू में किसी आसान और मान्य बहर को ही चुने
22 22 212 22
मेरा है तू दास रे जोगी
क्या है तेरे पास रे जोगी।
मौतों की जो बात रे जोगी
कितना गहरा राज़ रे जोगी।
जब होती है शाम तो देखो
जैसे हो कुछ खास रे जोगी।
तुझको देखा दूर से जब भी
आँखों को है प्यास रे जोगी।
मतले से एक अच्छी शुरुआत हुई मगर अगले शेर पर ही ग़ज़ल लड़खड़ा गई और आगे का सफ़र उसी लडखडाहट में पूरा हुआ ..
तक्तीअ का अभ्यास ग़ज़ल लेखन का आवश्यक अंग है इसे समझने की महती आवश्यकता है
कहन पर उस समय बात संभव है जब शिल्प से आगे बढ़ा जाए
भविष्य के लिए शुभकामाएं स्वीकारें
सुंदर प्रयास हुआ है.
ग़ज़ल के आधारभूत विधान को यदि ग़ज़ल कहने के पूर्व देख लिया जाय तो ग़ज़ल सम्बन्धी कई अनियमितताएँ न हों.
ग़ज़ल की सर्वमान्य परिपाटी के अनुसार एक ग़ज़ल में मतले के अलावे कमसेकम चार शेर होने चाहिये.
मिसरों के शब्दों में बह्र के अनुरूप वज़्न हो.
आपने जिस बह्र को अपनाया है उसका वज़्न दे दिया करें. इस आशय का अनुरोध इस मंच पर रचना पोस्ट करने के आवश्यक नियमों के क्रम में भी हुआ है.
शुभेच्छाएँ
Sukriyaa
Dosto
बढ़िया
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