कभी यूं ही बैठकर सोचते हुए
कल्पना की असीम गहराइयों में
डूबते उतराते
भाव ध्वनियां बनकर
खुद रूप लेने लगते हैं
शब्द का।
शब्द बोलते हैं
एक भाषा
और फिर
गडमड हो जाते हैं
एक दूसरे में।
रह जाती है
एक ध्वनि
एक स्वर
वह जो
परम भाव है
परम ध्वनि
परम अक्षर!
जहां से उपजे
वहीं समा गए
परम शून्य में।
निर्विकार शान्ति!
भाव मिले जब शून्य को, मन में ज्ञान समाय।
तन माटी से ऊपजा, तन माटी मिल जाय।।
- बृजेश नीरज
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आदरणीया अन्नपूर्णा जी आपका हार्दिक आभार!
आदरणीय बृजेश भाई जी , सुंदर पंक्तियों मे बहुत कुछ कहा है आपकी कलम ने बधाई आपको ।
आदरणीय जिंदल साहब आपका हार्दिक आभार!
आदरणीया महिमा जी आपका हार्दिक आभार!
वाह !! आदरणीय ब्रिजेश जी .. बहुत ही सुंदर भावपूर्ण अभिव्यक्ति ... बहुत -२ हार्दिक बधाई आपको
आदरणीया कुंती जी आपका आभार!
बहुत सुंदर प्रस्तुति.बृजेश जी.
आदरणीय रक्ताले जी आपका हार्दिक आभार! आपका अनुमोदन मुझे सदैव बल प्रदान करता है।
सादर!
आदरणीय निकोर जी आपका हार्दिक आभार!
आदरणीय अरुन भाई आपका हार्दिक आभार! आपको रचना पसंद आयी, मेरा प्रयास सार्थक हुआ।
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