वो बिलकुल साफ़ ओ सफ्फाफ़ थी, टाटा साल्ट की तरह फ्री फ्लोइंग, एक एक दाने की तरह उसकी शख्सियत के रेज़े (कण) धुले धुले और चमकते से. मगर साथ साथ हालात-ओ-सिफात (स्थितियां और स्वभाव) की बंदिशें (बंधन) भी आयद (लागू) थीं और कुदरत (प्रकृति) ने हमारी निस्बतों की हदें (मिलने जुलने की सीमाएं) और मुबाहमात की मिकदार (संबंधों की मात्रा) तय कर दी थी. हम मिल तो सकते थे, मगर घुल मिल नहीं सकते थे...एक दूसरे को चाह और समझ तो सकते थे मगर एक दूसरे में शामिल नहीं हो सकते थे...वरना तमाम रिश्तों के ज़ायके बिगड़ जाते, सब कुछ बेमज़ा हो जाता.
हम बरसों डाइनिंग टेबल पे साथ-साथ रखे बर्तनों की तरह रोज़ साथ-साथ सजते रहे, एक दूसरे के मुक़ाबिल (सामने) होते रहे, और खनकते रहे. हमने एक अरसा ज़िन्दगी यूँ ही एक ऐसे तकारुब (निकटता) में गुज़ारी जो हमारे फिराक़ (वियोग) से भी गराँ (भारी) थी.
गिर्दोपेश (आसपास) में लोग लुत्फ़नशीं (आनंदित) होते रहे, हवाओं में मुसर्रत (हर्ष और उल्लास) का आँचल लरज़ता रहा, बावजूद इसके दो ज़िन्दगानियाँ ख़ामोशी से मर-मर के जीने का सबक सीखती रहीं.
© राज़ नवादवी
भोपाल गुरुवार ०७/०३/२०१३
प्रातःकाल ०७.५४
‘मेरी मौलिक व अप्रकाशित रचना’
Comment
प्राची जी, आपका बहुत बहुत धन्यवाद इस रचना को ज़ाती शिद्दत के साथ पढ़ने और महसूस करने का! सादर.
इस डायरी के पन्ने में सिमटे भाव पर क्या कहूँ ..बस महसूस कर रही हूँ , और सोच रही हूँ उफ्फ, हर किसी की ज़िंदगी की डायरी में ऐसे पन्ने क्यों होते हैं??
शुभकामनाएँ
और अपने अज़ीज़ पन्ने हम सबके साथ साँझा करने के लिए धन्यवाद
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